प्रेम, सौहार्द और उत्साह का संगम है कुंभ
भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा
अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,
अमौसा नहाये चलल गाँव देखा
-कैलाश गौतम
कुम्भ जाने से पहले कैलाश गौतम की मशहूर रचना 'अमौसा का मेला' नहीं पढ़ी तो ज़रूर पढ़ लें, ताकि वहां पहुंच कर कविता में मौजूद तमाम चीज़ों को खुद से और मेले से जोड़कर देखने के साथ-साथ महसूस भी कर पायें, यदि मेले से लौट आये हैं कविता तो भी पढ़ें, ताकि मेले की यादों को ताज़ा कर पायें और यदि कभी मेले में नहीं गये और न ही भविष्य में जाने की कोई योजना है, तो फिर तो इस कविता को ज़रूर पढ़ें ताकि मेले का पूरा हाल शब्दों में बयां होकर आपके मस्तिष्क में उतर जाये।
मैंने जब से होश संभाला, तब से कुम्भ के बारे में सुना और धीरे-धीरे मेरे आसपास के माहौल और हिंदी सिनेमा ने इसका एक अलग ही चेहरा मेरे ज़ेहन में खींच दिया। "कुम्भ में बिछड़े दो भाई..." जैस बातों ने बचपन के दिनों में डराया भी, कि ऐसी कैसी जगह है कि लोग यहां अपनों से बिछड़ जाते हैं और मिलते ही नहीं कभी, फिर वक्त के साथ इस बात का अर्थ भी बदल गया। ज़िंदगी के लगभग तीस बसंत देखने बाद भी कुंभ जाने का मौका नहीं मिला, लेकिन तमन्ना हमेशा से थी। मन में जितने सवाल और जितने उत्साह थे, वो सारे इस साल मेले में पहुंच कर कुछ हद तक अपनी मंज़िल तक पहुंच गए। साधू-बाबाओं के नाम से बचपन में कई बार डर कर खाना खाना पड़ा और सोना भी पड़ा, लेकिन यहां पहुंच कर वो सारे भ्रम भी खत्म हो गए, तब जब बाबा लोगों के साथ बैठकर गपशप करने, खाना-खाने, बरसाती कड़कड़ाती ठंड में आग से हाथ सेंकने, राजनीति और देश-दुनिया की बातें करने का मौका मिला। साथ ही ये भी समझ आया कि साधू बनना, योगी हो जाना, शायद डॉक्टर-इंजीनियर होने से ज्यादा मुश्किल काम है। मेरे लिए प्रयागराज कुंभ 2019 एक अलग तरह का ही अनुभव रहा, जो मेरे बेहतरीन अनुभवों में से एक है। हालांकि सरकारी इंतज़ामात ने उम्मीदों पर थोड़ा पानी फेरा, लेकिन वहां पहुंच कर एक अलग जीवन जीने का अनुभव इतना अनोखा था कि इन सब बातों पर ध्यान ही नहीं गया।
मेले में पहुंच कर वैसे तो मेरे पास विकल्प था कि मैं फाइवस्टार ट्रीटमेंट लेते हुए, अपनी सहूलियत और समय के हिसाब से मेला घूमूं, लोगों से मिलूं, कहानियां तलाशूं लेकिन मैंने बाबा लोगों की कुटिया में रहने का निर्णय लिया। वैसे तो हमारा समय और माहौल इस बात के लिए हमें तैयार नहीं कर पाता कि हम इस तरह का कोई रिस्क लें, ऊपर से तब जब आप एक लड़की हों, लेकिन मुझे लगा कि रिस्क लेकर देखना चाहिए। कुछ रातें गलाती ठंड में घास के बने एक ऐसे कमरे में गुज़ारनी चाहिए, जहां कमरे के भीतर आने के लिए लकड़ी या लोहे के दरवाज़ें की जगह सिर्फ एक गर्म कंबल का पर्दा लटका हो। पहली रात नींद नहीं आई, ठंड भी ज्यादा थी और असुरक्षा का एक भाव भी, लेकिन उसके बाद की रातें दोस्तों के साथ ने आसान बना दीं। मैंने हर पल को शब्दों और अनुभव के हिसाब से जिया, फिर बात चाहे रात 3 बजे शमशान पूजा की हो या फिर गांजा फूंकते नागा बाबाओं के बीच हंसी-ठहाका करने की।
कुम्भ वो जगह है जहां आस्था, विश्वास, सौहार्द एवं संस्कृतियों का मिलन एक साथ होता है। ज्ञान, चेतना और उसका परस्पर मंथन कुम्भ मेले का वो आयाम है जो आदि काल से ही हिन्दू धर्मावलम्बियों को बिना किसी आमन्त्रण के खींच कर एक जगह ले आता है। यह पर्व किसी इतिहास निर्माण के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि समय द्वारा स्वयं ही बना दिया गया। वैसे भी देखा जाये तो हमारे देश में धार्मिक परम्पराएं इतिहास पर नहीं आस्था और भरोसे के आधार पर टिकती हैं, इसलिए हम यह कह सकते हैं, कि कुम्भ जैसा विशालतम् मेला संस्कृतियों को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए ही आयोजित होता है। ये वो जगह है, जहां पहुंचने के लिए हमारे बीच से ही निकला एक खास वर्ग सालों साल से इंतज़ार करता है और अपनी गृहस्थी लेकर महीने भर वहां रहता है। फिर उनके लिए क्या सर्दी, क्या बरसात, क्या शीतलहर। मौसम इनकी आस्था को कमज़ोर नहीं बना सकती। यहां पहुंच कर ऐसे कई परिवार मिल जायेंगे, जिसमें चाचा-ताऊ-मामा-फुफा सब एक साथ पहुंचे हुए होते हैं, और मेले के आसपास ही अपने रहने खाने का इंतज़ाम कर लेते हैं। कई लोग तो महीने भर का राशन चूल्हा सब्जी सब लेकर पहुंचते हैं और वहां पहुंचे हुए नये-नये अनजान लोगों से जनम जनम का रिश्ता बना लेते हैं। लोगों के भीतर मौजूद इस आस्था ने मुझे एक नई दुनिया के ही दर्शन करवाये।
सिर्फ भारत से ही नहीं, देश के कोने कोने से लोग यहां पहुंचते हैं और लोगों की आस्था देखकर स्वयं को रोक नहीं पाते। मैं कई ऐसे फिरंग लोगों से मिली, जो साधू बन चुके हैं और सालों साल से कुम्भ में शामिल होते हैं। ये वो दुनिया है, जिसके लिए बंगला, गाड़ी, भोजन और कपड़ा जैसी ज़रूरतें बहुत पीछे छूट गई हैं।
कुंभ सिर्फ 4 शहरों में ही क्यों
ऐसा कहा जाता है, कि एक बार देवताओं व दानवों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया। मदरांचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी बनाकर समुद्र को मथा गया। समुद्र मंथन से 14 रत्न निकले। अंत में भगवान धनवंतरि अमृत का घड़ा लेकर प्रकट हुए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं और दैत्यों में उसे पाने के लिए लड़ाई छिड़ गई। ये युद्ध लगातार 12 दिन तक चलता रहा। इस लड़ाई के दौरान पृथ्वी के 4 स्थानों पर कलश से अमृत की बूंदें गिरी, वो चार जगहें थीं प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। लड़ाई शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर छल से देवताओं को अमृत पिला दिया। अमृत पीकर देवताओं ने दैत्यों को मार भगाया। काल गणना के आधार पर देवताओं का एक दिन धरती के एक साल के बराबर होता है। इस कारण हर 12 साल में इन चारों जगहों पर महाकुंभ का आयोजन किया जाता है। देखा जाये तो कुंभ मेले की परंपरा काफी पुरानी है, लेकिन उसे व्यवस्थित रूप देने का श्रेय आदि शंकराचार्य को जाता है। जिस तरह उन्होंने चार मुख्य तीर्थों पर चार पीठ स्थापित किए, उसी तरह चार तीर्थ स्थानों पर कुंभ मेले में साधुओं की भागीदारी भी सुनिश्चित की।
कुंभ में स्नान का महत्व
ऐसा माना जाता है कि कुंभ में किए गए एक स्नान का फल कार्तिक मास में किए गए हजार स्नान, माघ मास में किए गए सौ स्नान व वैशाख मास में नर्मदा में किए गए करोड़ों स्नानों के बराबर होता है। हजारों अश्वमेघ, सौ वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जो पुण्य मिलता है, वह कुंभ में एक स्नान करने से प्राप्त हो जाता है और यही वजह है कि श्रद्धालु दूर-दूर से इस स्नान के लिए इकट्ठा होते हैं।
आसान नहीं है साधु बन जाना
कुंभ पहुंचने से पहले मैं भी यही सोचती थी, जैसा कि अधिकतर लोग सोचते हैं कि जिसके पास कोई काम नहीं वो साधु बन जाता है, साधु हो जाना तो बहुत आसाना है, लेकिन यहां साधुओं-नागाओं-बाबाओं को देखकर मेरी ये सोच पूरी तरह से बदल गई। बारिश में, शीतलहर में या सर्दी में नंगे बदन तपस्या करना आसान तो नहीं। अपने शरीर को तकलीफ देकर ये लोग किस तरह तपस्या या पूजायें करते हैं, ये सब हर किसी के बस की बात नहीं। आश्चर्य तो तब हुआ जब रात 2 बजे एक बाबा को शमशान पर पूजा करते देखा, वो भी कड़कड़ाती सर्दी में बदन पर कपड़े के नाम पर मात्र एक अंगोछा, ऊपर से बारिश भी होने लगी। लेकिन बाबा ने पूजा नहीं रोकी। बिना परेशान हुए पूजा जारी रखी और अपनी जगह से तब ही उठे जब पूजा सुबह 5 बजे खत्म हुई। आस्था में सचमुच ऐसी कोई बात है, जो इंसान को अच्छा-बुरा सब छोड़कर अपनी दुनिया में खींच लाती है।
इस बार कुंभ में कई तरह के नये और खास इंतजामात किए गए हैं। रुकने की व्यवस्था ठीक-ठाक है, कहीं जगह ना मिले तो किसी बाबा की शरण में जायें, उनकी कुटिया में जगह मिल जायेगी। यहां पहुंच कर आपको खाने-पीने की चिंता बिल्कुल करने की आवश्यकता नहीं। जगह जगह पर अन्नक्षेत्र बने हुए हैं, जहां आप मुफ्त में खाना खा सकते हैं। नेत्र शिविर भी लगाए गए हैं, जहां आंखों का मुफ्त इलाज चल रहा है। ठंड बहुत ज्यादा है, लेकिन आस्था को कोई मौसम कमज़ोर नहीं बना सकता और यही वजह है कि यहां पहुंचने वालों की भीड़ छंटने का नाम नहीं लेती। देखा जाये तो कुम्भ ही एकमात्र वो मिलन है जो भारत और विश्व के जन सामान्य को अविस्मरणीय काल तक आध्यात्मिक रूप से एकताबद्ध करता रहा है और भविष्य में भी इसका ऐसा किया जाना जारी रहेगा।
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