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औरतों पर हो रही हिंसा के पीछे सबसे बड़ी वजह जाननी है तो महादेवी वर्मा को पढ़िए

महादेवी वर्मा ने महिलाओं की समस्याओं को ही इंगित नहीं किया बल्कि उन्होंने नारीजगत को भारतीय संदर्भ में मुक्ति का संदेश दिया। नारी मुक्ति के विषय में उनका विचार है कि भारत की स्त्री तो भारत मां की प्रतीक है। वह अपनी समस्त सन्तान को सुखी देखना चाहती है। उन्हें मुक्त करने में ही उनकी मुक्ति है।

औरतों पर हो रही हिंसा के पीछे सबसे बड़ी वजह जाननी है तो महादेवी वर्मा को पढ़िए

Friday June 02, 2017 , 7 min Read

महादेवी वर्मा ने महिलाओं की समस्याओं को ही इंगित नहीं किया बल्कि उन्होंने नारीजगत को भारतीय संदर्भ में मुक्ति का संदेश दिया। नारी मुक्ति के विषय में उनका विचार है कि भारत की स्त्री तो भारत मां की प्रतीक है। वह अपनी समस्त सन्तान को सुखी देखना चाहती है। उन्हें मुक्त करने में ही उनकी मुक्ति है।

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महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। वे बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित थी और बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थी। जिसकी शिक्षा उन्होंने शादी के बाद भी जारी रखी।

‘एक पुरुष के प्रति अन्याय की कल्पना से ही सारा पुरुष-समाज उस स्त्री से प्रतिशोध लेने को उतारू हो जाता है और एक स्त्री के साथ क्रूरतम अन्याय का प्रमाण पाकर भी सब स्त्रियां उसके अकारण दंड को अधिक भारी बनाए बिना नहीं रहती। इस तरह पग-पग पर पुरुष से सहायता की याचना न करने वाली स्त्री की स्थिति कुछ विचित्र सी है। वह जितनी ही पहुंच के बाहर होती है, पुरुष उतना ही झुंझलाता है और प्राय: यह मिथ्या अभियोगों के रूप में परिवर्तित हो जाती है।’ ये अंश महादेवी वर्मा की लिखी कहानी ‘लछमा’ से लिया गया है। एक औरत का जब रेप होता है या उसके साथ किसी भी तरह की हिंसा होती है तो सारी दुनिया इसके पीछे औरत की ही गलती ढूंढने लग जाती है। हमारी सोच इस कदर गढ़ दी गई है कि हम हर बात के लिए लड़कियों पर ही उंगली उठाते हैं।

महादेवी वर्मा ने महिलाओं की समस्याओं को ही इंगित नहीं किया बल्कि उन्होंने नारीजगत को भारतीय संदर्भ में मुक्ति का संदेश दिया। नारी मुक्ति के विषय में उनका विचार है कि भारत की स्त्री तो भारत मां की प्रतीक है। वह अपनी समस्त सन्तान को सुखी देखना चाहती है। उन्हें मुक्त करने में ही उनकी मुक्ति है। मैत्रेयी, गोपा, सीता और महाभारत के अनेक स्त्री पात्रों का उदाहरण देकर वह निष्कर्ष निकालती हैं कि उनमें से प्रत्येक पात्र पुरुष की संगिनी रही है, छाया मात्र नहीं। छाया और संगिनी का अंतर स्पष्ट है – ‘छाया का कार्य, आधार में अपने आपको इस प्रकार मिला देना है जिसमें वह उसी के समान जान पड़े और संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक से अधिक पूर्ण बनाना।’

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साल 1933 में उन्होंने नारीत्व के अभिशाप पर लिखा है – ‘अग्नि में बैठकर अपने आपको पतिप्राणा प्रमाणित करने वाली स्फटिक सी स्वच्छ सीता में नारी की अनंत युगों की वेतना साकार हो गयी है।’ सीता को पृथ्वी में समाहित करते हुए राम का हृदय विदीर्ण नहीं हुआ। ‘भारतीय संस्कृति और नारी’ शीर्षक निबंध में उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति में स्त्री के महत्वपूर्ण स्थान पर गंभीर विवेचना की है। उनके अनुसार मातृशक्ति की रहस्यमयता के कारण ही प्राचीन संस्कृति में स्त्री का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, भारतीय संस्कृति में नारी की आत्मरूप को ही नहीं उसके दिवात्म रूप को प्रतिष्ठा दी है।

‘पुरुष ने स्त्री के वास्तविक रूप को कभी नहीं देखा’

महादेवी अपनी लेखनी से सजगता और निडरता के साथ भारत की नारी के पक्ष में लड़ती रहीं। नारी शिक्षा की ज़रूरत पर जोर से आवाज़ बुलंद की और खुद इस क्षेत्र में कार्यरत रहीं। उन्होंने गांधीजी की प्रेरणा से संस्थापित प्रयाग महिला विद्यापीठ में रहते हुए अशिक्षित जनसमूह में शिक्षा की ज्योति फैलायी थी। शिक्षा प्रचार के संदर्भ में वे सुधारकों की अदूरदर्शिता और संकुचित दृष्टि पर खुलकर वार करती हैं। वह लिखती हैं – ‘वर्तमान युग के पुरुष ने स्त्री के वास्तविक रूप को न कभी देखा था, न वह उसकी कल्पना कर सका। उसके विचार में स्त्री के परिचय का आदि अंत इससे अधिक और क्या हो सकता था कि वह किसी की पत्नी है। कहना न होगा कि इस धारणा ने ही असंतोष को जन्म देकर पाला और पालती जा रही है।’ नारी में यौन तत्व को ही प्रधानता देनेवाली प्रवृतियों का उन्होंने विरोध किया। उनके अनुसार निर्जीव शरीर विज्ञान ही नारी के जीवन की सृजनतात्मक शक्तियों का परिचय नहीं दे सकता। उनका मानना है कि ‘अनियंत्रित वासना का प्रदर्शन स्त्री के प्रति क्रूर व्यंग ही नहीं जीवन के प्रति विश्वासघात भी है।

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हिंदी साहित्य के छायावादी युग की प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित कवियत्री महादेवी वर्मा की गद्य एवं पद्य की रचनाओं से उनके व्यक्तित्व के दो पहलू देखने को मिलते हैं। उनकी कविता में रहस्यवादी प्रवृत्ति और दुखवाद की अधिकता है, भावुकता है। लेकिन गद्य में विचारक के रूप में उनका बौद्धिक पक्ष प्रखर है। 

महादेवी वर्मा एक सन्यासिनी

हिन्दी के साहित्याकाश में छायावादी युग के प्रणेता 'प्रसाद-पन्त-निराला' की अद्वितीय त्रयी के साथ-साथ अपनी कालजयी रचनाओं की अमिट छाप छोड़ती हुई अमर ज्योति-तारिका के समान दूर-दूर तक काव्य-बिम्बों की छटा बिखेरती यदि कोई महिला जन्मजात प्रतिभा है तो वह है 'महादेवी वर्मा।' महादेवी वर्मा के हृदय में शैशवावस्था से ही जीव मात्र के प्रति करुणा थी, दया थी। उन्हें ठण्डक में कूं कूं करते हुए पिल्लों का भी ध्यान रहता था। पशु-पक्षियों का लालन-पालन और उनके साथ खेलकूद में ही दिन बिताती थीं। चित्र बनाने का शौक भी उन्हें बचपन से ही था। उनके व्यक्तित्व में जो पीडा, करुणा और वेदना है, विद्रोहीपन है, अहं है, दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता है, इन सब के बीज उनकी इसी अवस्था में पड़ चुके थे और उनका अंकुरण तथा पल्लवन भी होने लगा था। हिंदी साहित्य के छायावादी युग की प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित कवियत्री महादेवी वर्मा की गद्य एवं पद्य की रचनाओं से उनके व्यक्तित्व के दो पहलू देखने को मिलते हैं। उनकी कविता में रहस्यवादी प्रवृत्ति और दुखवाद की अधिकता है, भावुकता है। लेकिन गद्य में विचारक के रूप में उनका बौद्धिक पक्ष प्रखर है। उनके संपूर्ण गद्य साहित्य में पीड़ा या वेदना के कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य रचनात्मक रोष समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव परिलक्षित होता है। उन्होने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया।

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महादेवी वर्मा ने एक निर्भीक, स्वाभिमानी भारतीय नारी का जीवन जिया। 11 सितंबर 1987 को उनका निधन हो गया था। उनकी कविताएं आज भी जिंदा हैं।

1932 में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। वे बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित थी और बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थी। जिसकी शिक्षा उन्होंने शादी के बाद भी जारी रखी। महादेवी वर्मा को मानवसेवा करना बहुत अच्छा लगता था। उन्होंने निरीह व्यक्तियों की सेवा का व्रत भी ले रखा था। वे कई बार पास के ग्रामीण अंचलों में जाकर ग्रामीण लोगों को उपचार तथा नि:शुल्क दवाईयां उपलब्ध कराती थी। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गईं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए 'पद्म भूषण' की उपाधि और 1969 में 'विक्रम विश्वविद्यालय' ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि से अलंकृत किया। इससे पूर्व महादेवी वर्मा को 'नीरजा' के लिए 1934 में 'सक्सेरिया पुरस्कार', 1942 में 'स्मृति की रेखाओं' के लिए 'द्विवेदी पदक' प्राप्त हुए। 1943 में उन्हें 'मंगला प्रसाद पुरस्कार' एवं उत्तर प्रदेश सरकार के 'भारत भारती पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। 'यामा' नामक काव्य संकलन के लिए उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' प्राप्त हुआ।

-प्रज्ञा श्रीवास्तव