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कविता को नदी की तरह बहने दो: लीलाधर जगूड़ी

कविता को नदी की तरह बहने दो: लीलाधर जगूड़ी

Monday October 23, 2017 , 8 min Read

साहित्य ने अभाव और अंधकार को भी एक पदार्थ माना है। शब्द भी यहां धातु है। हर कर्म एक वृक्ष है, जिसमें फल की आकांक्षा नहीं करते हुए किसी 'निष्फल' की भी फल जैसी ही आकांक्षा करनी है।

लीलाधर जागुड़ी (फाइल फोटो)

लीलाधर जागुड़ी (फाइल फोटो)


निकष (कसौटी) बनाने वाले प्राचीन चिंतकों ने कविता के जितने दुर्गुण बताये हैं, वे आज कविता के मुख्य गुण बने हुए हैं। इसलिए कविता की कसौटी बनाकर खूंटा न गाड़ा जाए, तो अच्छा है। 

 देश के जाने-माने कवि कुंवर नारायण का कहना है कि जगूड़ी उन थोड़े से कवियों में हैं, जो धूमिल के साथ हिंदी कविता के परिदृश्य में आए, पर उनकी कविताएं बिल्कुल अलग ढंग से अपनी पहचान बनाती हैं।

कवि लीलाधर जगूड़ी का कहना है कि कविता जैसी कविता से कविता में काम नहीं चलता। प्राचीन चिंतकों ने कविता के जितने दुर्गुण बताए हैं, वे आज कविता के मुख्य गुण बने हुए हैं। आज जरूरत है कि कविता को एक प्रवाहमान नदी रहने दिया जाय, वह अपना तल काटे, चाहे तट, उसे बहने दिया जाय। कविता का पानी खुद अपने किनारे और अपनी मझधारें बना लेगा। जगूड़ी कहते हैं कि निकष तब काम आत है, जब अपने पास धातु हो, धातुओं में भी अपने पास स्वर्ण हो। ढाई अक्षर के तीन शब्द बहुत भ्रामक हैं- स्वर्ण, स्वर्ग और प्रेम। ये जीवन की जड़ता, उत्सर्ग और व्याप्ति के प्रतीक भी हैं।

साहित्य ने अभाव और अंधकार को भी एक पदार्थ माना है। शब्द भी यहां धातु है। हर कर्म एक वृक्ष है, जिसमें फल की आकांक्षा नहीं करते हुए किसी 'निष्फल' की भी फल जैसी ही आकांक्षा करनी है। निषेध में स्वीकृति और स्वीकृति में निषेध। दोनों हाथ खालीपन के लड्डुओं से भरे हुए। कसौटियां, खासकर कविता के लिए और वे भी जो हमेशा चल सकें, नहीं बनायी जा सकतीं क्योंकि कविता का जन्म ही अपने समय में परिवर्तन लेने के लिए या परिवर्तन का साथ निभाने के लए हुआ है। वह स्वरूप से लेकर प्रतिपाद्यता और निष्पत्ति तक भीतरी-बाहरी द्वंद्व और कल्लोल के साथ अंत में केवल एक शब्द और उसकी ध्वनि है। शब्द और उसकी ध्वनि की कसौटी केवल श्रोता, पाठक, और भावक अथवा ऐन्द्रिक मनुष्य की समस्त ज्ञान, अज्ञान और विज्ञानयुक्त चेतना है। ध्वन्यार्थ ही कविता की शक्ति है।

भामह और अन्य चिंतकों ने कविता के जो दोष बताये हैं, वे सबसे ज्यादा आज की कविता में मौजूद हैं। खासकर 'वार्ता' और 'वर्णन' मात्र जैसे दोषों की याद दिलाना चाहूंगा। जब भामह कहते हैं कि यह वर्णन है या कविता, यह वार्ता है या कविता, इन प्रश्नों की उत्सुकता से पता पड़ता है कि वर्णन और वार्ता काव्य के दोष हैं। लेकिन सचाई यह है कि प्राचीन कविता हो, चाहे आधुनिक, दोनों में वार्ता और वर्णन न कवल मौजूद हैं बल्कि भरे पड़े हैं। भामह शायद यह कहना चाहते हैं कि वर्णन और वार्ता दोनों में कविता होना जरूरी है। मतलब कि कविता इनसे इतर कोई और तत्व है।

भाषा और विभाषा होते हुए भी कविता अपनी कोई और अव्यवहृत, अपारम्परिक भाषा से पैदा होने वाले इन्द्रजाल (जादू) के अज्ञात-अपरिचित अनुभाव का संस्पर्श है। मैंने कुछ ज्यादा ही संस्कृत के शब्द उडे़ल दिये हैं। अनुभवातीत अनुभव कराने वाली नहीं भाषिक उपस्थिति हमेशा कविता के समकक्ष मानी गयी है। कविता का संदर्भ और भाषा, उसका कथन और ध्वन्यार्थ, उसका रूप (शिल्प) और कलेवर संतुलन यानी कि सब कुछ स्थापत्य की तरह पुख्ता और फूल की तरह आकर्षक होना चाहिए। उसे आकाश की तरह भारहीन और बिना किसी नींव की रंगीनियत से रंजित भी होना चाहिए। ऐसे शब्द और ऐसी ध्वनि विरल हैं। इसीलिए तो कविता भी विरल है। कसौटी नहीं, कविता की कामना महत्वपूर्ण है। कसौटियां हों, और कविता न हो तब क्या होगा?

निकष (कसौटी) बनाने वाले प्राचीन चिंतकों ने कविता के जितने दुर्गुण बताये हैं, वे आज कविता के मुख्य गुण बने हुए हैं। इसलिए कविता की कसौटी बनाकर खूंटा न गाड़ा जाए, तो अच्छा है। फिर भी कविता अपने कथन में कहानी की कथा से, नाटक की कथा से और निबंध की कथा से अलग तरह का स्वाद देती है। उसे देना चाहिए, अन्यथा वह सब विधाओं का हलवा बनकर रह जाएगी। कविता को हमेशा अपने को अलग बनाए रखने के लिए, अपनी प्राचीनता और समकालीनता, दोनों से संघर्ष करना है। इसीलिए अच्छी कविता अर्धनिर्मित भी पूरी दिखती है और पूरी भी अर्धनिर्मित। कविता को पूर्णता और अधूरापन दोनों पसंद हैं। हर पूर्णता में एक अधूरापन तलाशने वाली कविता के खतरे कम नहीं हैं। हर संकल्प में विकल्प पैदा करने वाली कविता निर्विकल्प कैसे हो सकती है? वह हर बार खुद ही अपना एक विकल्प गढ़ती और तोड़ देती है। गढ़ना ही उसका 'तोड़ना' है। कितने कवि हैं, जो अपने समय, जीवन और भाषिक संसार के टूटने को गढ़-गढ़कर तोड़ते हैं?

अपने शिल्प और तौर-तरीकों का गुलाम हो जाना भी बहुत बड़ी रूढ़ि है। रूढ़ि भंजक कवियों की अच्छी कविताओं को एक जगह प्रस्तुत कर एक परिदृश्य रचा जा सकता है। जो कसौटी से भी बड़ा काम करेगा। वह बड़ा काम होगा कविता की मूल धातु बचाने का। अच्छा हो कि अच्छी कविता की हमेशा के लिए एक परिभाषा (कसौटी) न बनायी जाय। कोई कवि अगर अपनी कविता का एक बांध बनाना चाहता हो तो यह उसकी अनुभव सिंचन और वैचारिक विद्युत उत्पादन की तकनीकी क्षमता तथा दक्षता पर निर्भर रहता है।

जो कवि लकीर का फकीर नहीं होगा, उसके संघर्ष, तपस्या और प्रयोग का आकलन अलग से करना होगा। उसकी अपनी कसौटी शायद उसके अपने काव्य में होगी। लेकिन यह जरूर देखा जाना चाहिए कि कितना वह कविता जैसी कविता लिखते रहने की रूढ़ हो चुकी परम्परा से पृथकता स्थापित करने के लिए अपने ज्ञान-विज्ञान से नया काम कर पाया। अपने में अपने से अलग होने की भी एक परम्परा प्रतिष्ठित होनी चाहिए। कविता को बड़े कवि भाषा की एक आदत न बनाकर उसे किसी नयी उपलब्धि में बदलने की निजी चेतना विकसित करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कविता आकार में बड़ी है या छोटी। मन्तव्य बड़ा होता है। सरलता में जो गहनता होती है, वह रहस्यमय होते हुए भी टिकाऊ होती है। शब्दों के अम्बार और टेढ़ी-मेढ़ी पंक्तियों के बावजूद देखना चाहिए कि कविता वहां है भी या नहीं? प्रयोग की कोई सीमा नहीं, पर वह सार्थक होना जरूरी है। लेकिन निरर्थक दिखने वाला साहस भी सार्थक चीजें पैदा कर सकता है।

ख्यात आलोचक नामवर सिंह लिखते हैं - 'लीलाधर जगूड़ी कई बातों में विलक्षण कवि हैं, अनूठे कवि भी। उनकी कविताओं का अपना अंदाज है, अपना व्यक्तित्व। उनकी दशकों पुरानी कविताओं में भी आज का टटकापन है। हिंदी कविता में ऐसी अलग-सी पहचान बड़ी मुश्किल से बन पाती है। उनकी कविता में पहाड़ या हिमालय नहीं, क्योंकि वह प्रकृति नहीं, मनुष्य के कवि हैं। उनकी साहित्य में उतनी चर्चा नहीं हो सकी, जितनी चाहिए थी। गढ़वाल-कुमाऊं विश्वविद्यालय तो जाने क्या कर रहे हैं।' देश के जाने-माने कवि कुंवर नारायण का कहना है कि जगूड़ी उन थोड़े से कवियों में हैं, जो धूमिल के साथ हिंदी कविता के परिदृश्य में आए, पर उनकी कविताएं बिल्कुल अलग ढंग से अपनी पहचान बनाती हैं। यथार्थ के चटक बिम्बों का कल्पनाशील संयोजन उनके रचना कौशल का एक प्रमुख गुण है। उनमें एक सुपरिचित जीवन दृष्टि का स्थायित्व है। साथ ही नए अनुभवों को नई तरह से प्रस्तुत करने की चेष्टा।

लीलाधर जगूड़ी के बारे में हिंदी साहित्य के शीर्ष आलोचक मैनेजर पांडेय कहते हैं कि वह अपने समय, समाज, इतिहास और उसमें मनुष्य की यातना और दुर्दशा पर कविताएं लिख रहे हैं। खासकर मुझे उनकी कविता में जो बात आकर्षित करती है - प्रकृति से मनुष्य की तुलना की उन्होंने अद्भुत कल्पना की है। जगूड़ी कैसे सीधे समझाते हैं, जैसेकि प्रकृति को हम समझते हैं। राजनीति की बिडम्बनाओं में फंसे मनुष्य की दुर्गति पर भी वह बड़ी पैनी निगाह रखते हैं। यह उल्लेखनीय बात है कि जगूड़ी का एक बड़ा पाठक वर्ग है। कवि केदारनाथ सिंह को लीलाधर जगूड़ी की कविताओं की विकास यात्रा को गौर से देखने पर पता चलता है कि उनकी कविता पर हिंदी आलोचना ने काम नहीं किया है। हालांकि आलोचना का पूरा परिदृश्य ही ऐसा है कि वहां इस दिशा में कोई उल्लेखनीय काम न तो हुआ है, न हो रहा है। काफी अलग और लगातार लिखना जगूड़ी की बड़ी विशेषता है। वे कई मायने में विरल कवि हैं। जगूड़ी की एक कविता है- 'कला भी जरूरत है' -

मेहनत और प्रतिभा के खेत में

समूहगान से अँकुवाते कुछ बूटे फूटे हैं

जिनकी वजह से कठोर मिट्टी के भी

कुछ हौसले टूटे हैं

कुछ धब्बे अपने हाथ-पाँव निकाल रहे हैं

जड़ में जो आँख थी उसे टहनियों पर निकाल रहे हैं

खाली जगहें चेहरों में बदलती जा रही हैं

महाआकाश के छोटे-छोटे चेहरे बनते जा रहे हैं

कतरनों भरे चेहरे

कला जिनकी ज़रूरत है

धब्बे आकृतियों में बदल गए हैं

यह होने की कला

अपने को हर बार बदल ले जाने की कला है

कला भी ज़रूरत है

वरना चिड़ियाँ क्यों पत्तियों के झालर में

आवाज़ दे-देकर ख़ुद को छिपाती हैं

कि यक़ीन से परे नहीं दिखने लगती है वह

कला की ज़रूरत है

कभी भी ठीक से न बोया जा सका है

न समझा जा सका है कला को

फूल का मतलब अनेक फूलों में से

कोई सा एक फूल हो सकता है

फूल कहने से फूल का रंग निश्चित नहीं होता

फूल माने होता है केवल खिला हुआ

कलाओं को पाने के लिए कलाओं के सुपुर्द होना पड़ता है

कलाओं में भी इंतज़ार, ज़बरदस्ती

और बदतमीज़ी का हाथ होता है

बद-इंतज़ामी से पैदा हुए इंतज़ाम

और बदतमीज़ी से पैदा हुए तमीज़ में

कलाएँ निखर कर आ सकती हैं संतुलित शिष्टाचार में

लगातार व्यवहार में वे दिखने लग सकती हैं

निरे इंतज़ार में ढाढ़स बँधाती हुई

अगली बार किसी और नए सिरे से पैदा होने को बताती हुईं।

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