सरस के शब्दों में उगा आधा सूर्य, आधा चाँद
वह अपने दौर के उन प्रतिभाशाली कवियों में से एक थे, जिन्होंने नवगीतकार के रुप में हिन्दी काव्य जगत में बड़ी सादगी और शालीनता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। फिर भी वह गुमनाम-सा वक्त काट गए।
'सरस' ने पुरानी भावस्थितियों पर वृहत्तर मानवीय-सन्दर्भों से कटे निरे आत्मरोदन से भरे गीत के उबाऊ स्वरुप और स्वभाव को बदली हुई परिस्थितियों में अपर्याप्त मानते हुए उसके रुढ़ साँचों-ढाँचों को तोड़ कर अपना एक अभिनव कथ्यपूर्ण शिल्प विकसित किया।
उनकी जिंदगी की उठा-पटक के पीछे एक कारण उनका स्वास्थ्य भी रहा। उनका घरेलू जीवन काफी कष्टकर रहा। अपने खाटी प्रगतिशील व्यक्तित्व के नाते वह सरकारी साहित्यिक संस्थाओं से भी काफी उपेक्षित रहे।
पूरा सफर, जैसे किसी यातना-शिविर में बीता हो, जीवन और सृजन, दोनो के ऐसे कठिनतर अनुभवों से गुजरते हुए संघर्ष के कवि भगवान स्वरूप सरस अपने वक्त के उन गिने-चुने कवियों में रहे हैं, जिनका 'एक चेहरा आग' का न जाने क्यों किसी-किसी को ही ठीक से सुहाया, अथवा गाहे-ब-गाहे नजर आया। जाते-जाते वह समकालीन कविता के लिए कई ऐसे सवाल छोड़ गए, जो आज भी कौंध में हैं। वह अपने दौर के उन प्रतिभाशाली कवियों में से एक थे, जिन्होंने नवगीतकार के रुप में हिन्दी काव्य जगत में बड़ी सादगी और शालीनता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। फिर भी वह गुमनाम-सा वक्त काट गए-
खींच कर परछाइयों के दायरे आईनों पर घूमता है आदमी।
अथ- फफूँदी पावरोटी केतली-भर चाय,
इति- घुने रिश्ते उदासी भीड़ में असहाय,
साँप-सा हर आदमी को सूँघता है आदमी।
उगा आधा सूर्य, आधा चाँद हिस्सों में बँटा आकाश,
एक चेहरा आग का है दूसरे से झर रहा है
राख का इतिहास, आँधियों में मोमबत्ती की तरह
ख़ुद को जलाता-फूँकता है आदमी।
'नवगीत दशक' के प्रमुख कवि भगवान स्वरूप सरस जिस तरह रचनाकर्म में संघर्षरत रहे, उनका जीवन भी उतना ही उथल-पुथल भरा रहा। मूलतः वह मैनपुरी (उ.प्र.) के ग्राम लाखनमऊ के रहने वाले थे। आगरा (उ.प्र.) से स्नातक शिक्षा लेने के बाद कुछ वर्षों तक उन्होंने अध्यापन किया, कई नौकरियां बदलीं, बाद में मध्य प्रदेश में ग्रामीण विकास अभिकरण विभाग में अकाउंटेंट हो गए और वहीं से सेवा निवृत्त हुए। वह कवि सम्मेलनों में भी जाते थे, लेकिन बहुत कम। शलभ श्रीराम सिंह, डॉ. शंभुनाथ सिंह, उमाकांत मालवीय, शांति सुमन, माहेश्वर तिवारी, राम सेंगर, नचिकेता, नारायणलाल परमार आदि से उनकी साहित्यिक निकटता रही। उनकी जिंदगी की उठा-पटक के पीछे एक कारण उनका स्वास्थ्य भी रहा। उनका घरेलू जीवन काफी कष्टकर रहा। अपने खाटी प्रगतिशील व्यक्तित्व के नाते वह सरकारी साहित्यिक संस्थाओं से भी काफी उपेक्षित रहे।
आलोचक मोहन श्रीवास्तव ने शहडोल (म.प्र.) में विभागीय सहकर्मी क्रांति श्रीवास्तव से उनकी दूसरी शादी रचाई थी। बताते हैं कि उन्हीं दिनो उनकी पहली पत्नी काफी रचनाओं की पांडुलिपियां अपने साथ लेकर भाई के पास लौट गईं। क्रांति श्रीवास्तव से उनकी दो पुत्रियां प्रतीक्षा और पूर्वा हुईं। सरसजी का हृदयाघात से निधन हो गया। उनकी दोनो बेटियों की शादियां उनके निधन के बाद हुईं। बाद में प्रतीक्षा की भी एक हादसे में मृत्यु हो गई। इस समय दिल्ली में रह रही पूर्वा श्रीवास्तव अच्छी आर्टिस्ट हैं। क्रांति श्रीवास्तव अकेले रायपुर (छत्तीसगढ़) के पलारी क्षेत्र में रहती हैं। सरस जी कवि नचिकेता द्वारा संपादित 'अंतराल' में खूब छपे। वस्तुतः वह अपने समकालीनों में सबसे ज्यादा उपेक्षित रहे। शलभ श्रीराम सिंह से उन्हें काफी प्रोत्साहन मिलता रहा। रायपुर के पास धमतरी के रहने वाले शीर्ष कवि नारायणलाल परमार से उनकी अंतिम समय तक खूब बनी।
अपनी रचनाओं के प्रकाशन के प्रति वह कितने उदासीन रहे, इसका पता इस बात से चलता है कि तमाम कविताएं संग्रहित कर लेने के बावजूद किताब के लिए उन्होंने कोई पांडुलिपि तक नहीं बनाई। किसी तरह कवि राम सेंगर ने उनकी रचनाओं की पांडुलिपि तैयार की। 'नवगीत दशक-दो' का जब 83 में विमोचन हुआ, उस समय पहली पांडुलिपि देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। दैनिक 'देशबंधु' के संपादक ललित सुरजन के प्रयासों से यह पांडुलिपि 'एक चेहरा आग का' नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित हुई। उन्हीं के प्रयासों से सरस जी को हिंदी साहित्य सम्मेलन, भोपाल की ओर से पांच हजार रुपए का पुरस्कार भी मिला। इससे पूर्व उनका गीत संग्रह माटी की परतें प्रकाशित हो चुका था। छंदमुक्त रचनाओं के एक साझा संग्रह 'डैनों से झाँकता सूरज' में भी उनकी कविताएं संकलित हैं-
जब-जब भी भीतर होता हूँ आँखें बन्द किए
लगता, जैसे, जलते हुए सवालों पर लेटा हूँ ज़हर पिये।
दबे हुए अहसास सुलग उठते हैं सिरहाने,
प्रतिबन्धों के फन्दे कसते जाते पैंताने,
लगता, जैसे, कुचली हुई देह पर कोई
चला गया हो लोहे के पहिए।
देश के शीर्ष नवगीतकार राम सेंगर लिखते हैं - 'कविता पर बड़ी-बड़ी बातें तो बहुत होती रही हैं मगर 'एक चेहरा आग' का न जाने क्यों किसी-किसी को ही ठीक से सुहाया, नजर आया। अपने वक्त के सशक्त प्रयोगधर्मी कवि भगवान स्वरूप सरस उन दंभी और चालाक लोगों की जवाबदेही को लेकर बहुत सारे सवाल छोड़ गए हैं, जो आज भी कौंध में हैं। सवाल, उन कवि नुमा लोगों के लिए, जो बड़े ही गैरजिम्मेदाराना ढंग से गीत के कहन में आए परिवर्तनों को देख-देख कर जले-भुने जा रहे थे और उसकी नवता और आधुनिकता बोध को कठघरे में खड़ा करके बड़े ही असभ्य तरीके से नवगीत के अस्तित्व, उसकी अस्मिता पर भन्नाते रहे हैं।
वे लोग भी, जो छंद और लय के अपने ज्ञान पर इतराते हुए कोरे गद्य को कविता के नाम पर ढेर लगाते गए, और अर्थ की लय की दुहाई दे-देकर गीत-नवगीत पर मुंह बिचकाते रहे हैं। होती भी क्या है अर्थ की लय, गीत न लिख पाने या उसके व्यापक और जीवंत कथ्यरूप और शब्द के स्वर-संधान को न पकड़ पाने के व्यामोह में जकड़े असहाय बौद्धिकों के चामत्कारिक शब्दजाल या कोरे दिमागी फितूर के सिवाय!
'यह तो गीत का विरोध करने वालों के लिए महज एक फतवा था, जिसके सत्य को उनसे अधिक भला कौन जानता होगा, जिन्होंने इस फतवे के ढोंग को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भगवान स्वरूप ने लयात्मक संवेदना के साथ किए गए इस भोंडे मजाक को समझते हुए पूरी तरह लयात्मक बने रहकर इस कथित अर्थ की लय को प्रयोग के बतौर गीतात्मक रूप में साधा और इस साधना की तकनीक भी अपनी कथ्य-भंगिमाओं और शब्द विन्यास के जरिए विकसित की, जिसे उनके गीतों में सहज ही निरूपित होते देखा जा सकता है।
'सरस' ने पुरानी भावस्थितियों पर वृहत्तर मानवीय-सन्दर्भों से कटे निरे आत्मरोदन से भरे गीत के उबाऊ स्वरुप और स्वभाव को बदली हुई परिस्थितियों में अपर्याप्त मानते हुए उसके रुढ़ साँचों-ढाँचों को तोड़ कर अपना एक अभिनव कथ्यपूर्ण शिल्प विकसित किया। यह जोखिम उन्हें इसलिए भी उठाना पड़ा क्योंकि कथ्य की चुनौतियाँ मुँह-बाए खड़ी थीं। नवता और आधुनिकताबोध के तकाजों पर पुराना गीत निपट गूँगा बना हुआ था। जीवन स्थितियों की भयावहता और यथार्थ के थपेड़ों के बीच अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे आदमी से उसकी संवेदना के तार कभी ठीक से जुड़ नहीं पाये। बदले हुए परिदृश्य को न उसने उसके साथ अन्तरंग होकर कभी समझने की कोशिश की और न उसे कथ्य भंगिमा के साथ भाषा-शिल्प के नये संस्कार ही दे पाया।'
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