Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

ममता कालिया की कविताओं में छटपटाती घरेलू स्त्री

ममता कालिया की कविताओं में छटपटाती घरेलू स्त्री

Thursday November 02, 2017 , 5 min Read

ममता कालिया की कविताएं पढ़ते समय लगता है, हम अपने जैसे संघर्षशील घर-परिवार के हालात को अनुभव कर रहे हैं, अपने जैसों के बीच से गुजर रहे हैं, जिसमें परिचय और मनुष्यता का सुख तो है लेकिन यातनाओं का सिलसिला भी, जो किसी भी संवेदनशील मनुष्य को झकझोरता रहता है।

image


वह दशकों तक अध्यापन से जुड़ी रहने के साथ ही महिला सेवा सदन डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद की प्राचार्या भी रही हैं। वे प्रख्यात रचनाकार स्वर्गीय रवीन्द्र कालिया की पत्नी हैं। 

'शोर के विरुद्ध सृजन' उनकी कहानियों, उपन्यासों, कविताओं और संस्मरणों का अनेक साहित्यकारों द्वारा किया गया आलोचनात्मक अध्ययन है। 

सत्तर-अस्सी के दशक से ही, जब धर्मयुग, सारिका, दिनमान, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाओं में उनके शब्द पूरी हिंदी पट्टी को आंदोलित किया करते थे, अपनी कविताओं, कहानियों, उपन्यासों में मध्यमवर्गीय भावुकता से परहेज कर संघर्षशील स्त्री को रेखांकित करने वाली ख्यात कथाकार ममता कालिया का आज (02 नवंबर) जन्मदिन है। इस सदी के सातवें दशक में जहाँ ममता कालिया ने लेखन आरंभ किया, कथा-कहानी में तब स्त्री की एक भीनी-भीनी छवि स्वीकृति और समर्थन के सुरक्षा-चक्र में दिखाई देती थी।

व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाएँ इस यथास्थितिवाद को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थीं। ममता कालिया ने अपने लेखन में रोज़मर्रा के संघर्ष में युद्धरत स्त्री का व्यक्तित्व उभारा और अपनी रचनाओं में रेखांकित किया कि स्त्री और पुरुष का संघर्ष अलग नहीं, कमतर भी नहीं वरन समाजशास्त्रीय अर्थों में ज़्यादा विकट और महत्तर है। दो नवंबर, 1940 को मथुरा-वृंदावन (उ.प्र.) में जनमीं ममता की शिक्षा दिल्ली, मुंबई, पुणे, नागपुर और इन्दौर शहरों में हुई। उनके पिता विद्याभूषण अग्रवाल पहले अध्यापन में और बाद में आकाशवाणी में कार्यरत रहे। वे हिंदी और अंग्रेजी साहित्य के विद्वान थे और अपनी बेबाकबयानी के लिए जाने जाते थे। ममता पर पिता के व्यक्त्वि की गहरी छाप रही है।

वह जितनी अपनी मुखर कहानियों के लिए जानी जाती हैं, उससे अधिक कविताओं में घरेलू और कामकाजी औरत के चित्र खींचने में एक कुशल कवयित्री के रूप में। उन्होंने अपने कथा-साहित्य में भी हाडमाँस की स्त्री का चेहरा दिखाया। जीवन की जटिलताओं के बीच जी रहे उनके पात्र एक निर्भय और श्रेष्ठ मूल्यों, स्त्री के जूझते जीवन की विकटताओं से परिचित कराते हैं। उनकी कहानियों में आक्रोश और भावुकता की बजाए जीवन के यथार्थ का संतुलन होता है।

वह दशकों तक अध्यापन से जुड़ी रहने के साथ ही महिला सेवा सदन डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद की प्राचार्या भी रही हैं। वे प्रख्यात रचनाकार स्वर्गीय रवीन्द्र कालिया की पत्नी हैं। उनकी प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं- खाँटी घरेलू औरत, कितने प्रश्न करूँ, Tribute to Papa and other poems, Poems 78, कहानी संग्रह हैं - छुटकारा, एक अदद औरत, सीट नं. छ:, उसका यौवन, जाँच अभी जारी है, प्रतिदिन, मुखौटा, निर्मोही, थिएटर रोड के कौए, पच्चीस साल की लड़की, ममता कालिया की कहानियाँ (दो खंडों में अब तक की संपूर्ण कहानियाँ)। 

उनके प्रमुख उपन्यास हैं- बेघर, नरक दर नरक, प्रेम कहानी, लड़कियाँ, एक पत्नी के नोट्स, दौड़, अँधेरे का ताला, दुक्खम्‌ - सुक्खम्‌ आदि। उनको साहित्य भूषण सम्मान, यशपाल स्मृति सम्मान, महादेवी स्मृति पुरस्कार, कमलेश्वर स्मृति सम्मान, सावित्री बाई फुले स्मृति सम्मान, अमृत सम्मान, लमही सम्मान आदि से समादृत किया जा चुका है।

'शोर के विरुद्ध सृजन' उनकी कहानियों, उपन्यासों, कविताओं और संस्मरणों का अनेक साहित्यकारों द्वारा किया गया आलोचनात्मक अध्ययन है। उनकी सम्पूर्ण कृतियाँ स्त्री समस्याओं के इर्द-गिर्द घूमती हैं। वह अपनी कविताओं में घरेलू, कामकाजी औरत की कुछ इस तरह तस्दीक करती हैं -

कभी कोई ऊंची बात नहीं सोचती

खांटी घरेलू औरत

उसका दिन कतर-ब्योंत में बीत जाता है

और रात उधेड़बुन में

बची दाल के मैं पराठे बना लूं

खट्टे दही की कढ़ी

मुनिया की मैक्सी को ढूंढूं

कहां है साड़ी सितारों-जड़ी

सोनू दुलरुआ अभी रो के सोया

उसको दिलानी है पुस्तक

कहां तक तगादे करूं इनसे

छोड़ो

चलो आज तोडूं ये गुल्लक...

ममता कालिया की कविताएं पढ़ते समय लगता है, हम अपने जैसे संघर्षशील घर-परिवार के हालात को अनुभव कर रहे हैं, अपने जैसों के बीच से गुजर रहे हैं, जिसमें परिचय और मनुष्यता का सुख तो है लेकिन यातनाओं का सिलसिला भी, जो किसी भी संवेदनशील मनुष्य को झकझोरता रहता है, हमारे चारो तरफ घट रही वास्तविकताओं से साक्षात्कार कराता चल रहा है-

एक नदी की तरह

सीख गई है घरेलू औरत

दोनों हाथों में बर्तन थाम

चौकें से बैठक तक लपकना

जरा भी लड़खड़ाए बिना

एक सांस में वह चढ़ जाती है सीढ़ियां

और घुस जाती है लोकल में

धक्का मुक्की की परवाह किए बिना

राशन की कतार उसे कभी लम्बी नहीं लगी

रिक्शा न मिले

तो दोनों हाथों में झोले लटका

वह पहुंच जाती है अपने घर

एक भी बार पसीना पोंछे बिना

एक कटोरी दही से तीन कटोरी रायता

बना लेती है खांटी घरेलू औरत

पाव भर कद्दू में घर भर को खिला लेती है

जरा भी घबराए बिना!

इलाहाबाद में काफी वक्त पहले मेरी पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' के प्रकाशनोत्सव में रवींद्र कालिया के साथ उपस्थित रहने के दौरान उन्होंने कहा था कि आधुनिक मीडिया ने स्त्री को पण्य-वस्तु के रूप में देश-काल, समाज से परिचित कराने का कुचक्र रचा है। यह तो बहुत भयानक है। हिन्दी कहानी के परिदृश्य पर ममता कालिया की उपस्थिति सातवें दशक से निरन्तर बनी हुई है। लगभग आधी सदी के काल खण्ड में ममता कालिया ने 200 से अधिक कहानियों की रचना की है। उम्रदराज होने के बावजूद वह आज भी रचनारत हैं। यद्यपि रवींद्र कालिया जी के चले जाने से उनकी सृजनधर्मिता में भी एक अधूरापन सा भर गया है।

यहां भी पढ़ें: श्रीलाल शुक्ल पुण्यतिथि विशेष: हाथ में 'रागदरबारी' और होठों पर मुस्कान