Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

ग़ज़ल है हमारी गंगा-जमुनी तहजीब: असगर वजाहत

ग़ज़ल है हमारी गंगा-जमुनी तहजीब: असगर वजाहत

Friday October 27, 2017 , 6 min Read

असगर वजाहत कहते हैं कि भारतीय साहित्य के गंगा-जमुनी सरोकार सूखने के बारे में आज हिंदी के बहुत कम कवि बात करना या सोचना चाहते हैं। इस पर उनका बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। 

असगर वजाहत (फाइल फोटो)

असगर वजाहत (फाइल फोटो)


आपने शायद ही कभी सुना, देखा हो कि हिंदी के किसी कवि की कविता का अनुवाद एशिया की बड़ी भाषाओं, चीनी-जापानी या अरबी-फारसी में हुआ और उसने इसकी facebook पर दी हो। 

वजाहत कहते हैं कि आज के पूरे परिदृश्य को समझने के लिए इतिहास में जाने की आवश्यकता है। हम सब जानते हैं कि फारसी लिपि में लिखी खड़ी बोली कविता का प्रारंभ 12-13वीं शताब्दी में हो चुका था और 400 साल की यात्रा तय करती हुई यह 19वीं शताब्दी में विश्व स्तर की कविता बन चुकी थी।

उपन्यास, कहानी, नाटक, यात्रा संस्मरण, निबंध, आलोचना आदि अनेक विधाओं से हिंदी साहित्य को संपन्न कर रहे देश के यशस्वी रचनाकार असगर वजाहत कहते हैं कि भारतीय साहित्य के गंगा-जमुनी सरोकार सूखने के बारे में आज हिंदी के बहुत कम कवि बात करना या सोचना चाहते हैं। इस पर उनका बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। आज की समकालीन हिंदी कविता गंगा जमुनी चेतना से बहुत दूर चली गई है और उसने यूरोपीय कविता का दामन थाम लिया है। यही वजह है कि हमारे हिंदी कवियों के अनुवाद किसी एशियाई भाषा में कम या नहीं, जबकि सीधे यूरोप की भाषाओं में अधिक होते हैं और कवि इस पर गर्व करते हैं। इन उपलब्धियों को फेस बुक पर डालते हैं।

आपने शायद ही कभी सुना, देखा हो कि हिंदी के किसी कवि की कविता का अनुवाद एशिया की बड़ी भाषाओं, चीनी-जापानी या अरबी-फारसी में हुआ और उसने इसकी facebook पर दी हो। दरअसल, आज की हिंदी कविता पूरी तरह अपने फॉर्म और काफी कुछ कंटेंट में भी पश्चिमोन्मुखी हो चुकी है। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि आज अच्छी कविता नहीं लिखी जा रही है। कुछ कवि, जिनकी संख्या बहुत कम है, बहुत अच्छी कविताएं लिख रहे हैं।

वजाहत कहते हैं कि आज के पूरे परिदृश्य को समझने के लिए इतिहास में जाने की आवश्यकता है। हम सब जानते हैं कि फारसी लिपि में लिखी खड़ी बोली कविता का प्रारंभ 12-13वीं शताब्दी में हो चुका था और 400 साल की यात्रा तय करती हुई यह 19वीं शताब्दी में विश्व स्तर की कविता बन चुकी थी। यह वह समय था, जब खड़ी बोली कविता के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग नहीं या बहुत कम किया जाता था। यही कारण था कि 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में अयोध्या प्रसाद खत्री ने खड़ी बोली कविता आंदोलन चलाया था। उन्होंने उस समय नागरी लिपि में खड़ी बोली हिंदी कविता की चार शैलियों का उल्लेख किया है। और गंगा- जमुनी चेतना से संपन्न मुंशी स्टाइल के अंतर्गत मीर तक़ी मीर और नजीर अकबराबादी की कविता को इसमें शामिल किया है।

उन्होंने मुंशी शैली को हिंदी खड़ी बोली कविता के लिए आदर्श शैली माना था। मुंशी शैली या गंगा-जमुनी काव्य संस्कार है क्या? यह मिली-जुली उत्तर भारत की उस संस्कृति का नाम है, जो मध्य एशिया और उत्तर भारत का सांस्कृति समन्वय थी। इस परंपरा के अंतर्गत जो कविता लिखी गयी, वह गंगा-जमुनी संस्कार की कविता कही जाती है। यह भावना, विचार और शैली के अदभुत संयोजन पर आधारित थी, और है। आधुनिक भारत में मुंशी स्टाइल हिंदी कविता की मुख्यधारा नहीं बन सकी।

इसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि बीसवीं शताब्दी में उर्दू-हिंदी विवाद/ विभाजन शुरू हो गया था और हिंदी और उर्दू दोनों अलग होकर अपनी अलग पहचान बना रही थीं। गंगा-जमुनी संस्कार क्योंकि समन्वय की चेतना है, इसलिए उसे काफी हद तक अस्वीकार कर दिया गया था। दूसरा कारण, हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता का बढ़ना था। इस कारण भी उर्दू और हिंदी का भेद उभारा गया था और मिली-जुली संस्कृति की भावना कमजोर पड़ गई थी।

वह बताते हैं कि आधुनिक युग में हिंदी कविता की मुख्य धारा छायावादी कविता बन गयी थी। छायावादी कविता अपने फार्म और कंटेंट में गंगा-जमुनी चेतना से बिल्कुल अलग थी। इसमें, कुछ अपवादों के बावजूद, विचार मुख्य रूप से यूरोप के और छंद संस्कृत के थे। इस तरह हिंदी कविता की मुख्यधारा ने अपनी अलग पहचान बना ली थी, जो गंगा-जमुनी चेतना से अलग थी।

सन् 1936 में प्रगतिशील आंदोलन ने गंगा-जमुनी चेतना को फिर से प्रवाहित करने की कोशिश की थी। इसके कई सशक्त उदाहरण भी मिलते हैं। पर आज़ादी के बाद हालात बदल गए थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 'कोल्ड वॉर' बहुत उग्र रूप से जारी हो गया था। भारत का पूरा साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवेश प्रगतिशील और कलावादी गुटों में बंट गया था।

कलावादी गुट ने मुक्तछंद की कविता को बहुत सशक्त रूप से सामने रखा था। छंद को छायावादी युग में भी तोड़ा गया था, प्रगतिशील युग में भी। लेकिन उन लोगों ने तोड़ा था, जो छंद को समझते थे और उनकी मुक्त छंद की कविता में भी छंद का आभास होता था। लेकिन प्रयोगवाद और अकविता ने छंद को इस तरह तोड़ा कि कविता पूरी तरह परम्परागत शैलियों से मुक्त हो गयी। नतीजे में कविता लय और स्वर से मुक्त होती चली गई। यह वह बिंदु था, जहाँ भाव, विचार और शैली का संयोजन टूट गया। हिंदी कविता गंगा-जमुनी संस्कारों से दूर हो गयी थी। पर मुक्त छंद कविता, इतना बड़ा आकर्षण और सुविधा बन गयी थी, जिसे प्रगतिशील कवियों ने भी स्वीकार कर लिया था। उन कवियों को यह बहुत रास आया था, जो विचार केंद्रित बौद्धिक कविता कर रहे थे और जिनका गंगा-जमुनी संस्कारों से कम लेना-देना था।

श्रोता और कवि के बीच पहला संवाद शैली द्वारा ही स्थापित होता है। शैलियों से मुक्त होना, लय और स्वर से मुक्त होना और बौद्धिकता का अतिरेक गंगा-जमुनी चेतना अर्थात जन चेतना से मुक्त होना था। यहां कलावादियों को भारी सफलता मिली कि उन्होंने हिंदी कविता को जन-मानस से काट दिया। अब हिंदी कविता यूरोपीय कविता की तरह केवल भाव और विचार की कविता बन गई। उसमें परम्परागत शैलियां गायब हो गयीं। इस तरह वह लोगों से दूर होती चली गई और यूरोपीय कविता से पास होती चली गयी। हिंदी कविता लिखने के लिए किसी काव्य संस्कार की आवश्यकता नहीं रह गयी।

ऐसा बिलकुल नहीं है कि आज़ादी के बाद हिंदी कविता में गंगा-जमुनी संस्कार की धारा बिल्कुल सूख गई। ऐसे बड़े कवि थे, जो इस धारा के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं, पर 1970-80 के दशक में इस धारा की उपेक्षा ही नहीं हुई, विरोध भी हुआ। फिर भी इस धारा को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका है। इस धारा की एक लोकप्रिय शैली ग़ज़ल है। यह इतनी लोकप्रिय शैली है कि जिसने भारतेंदु से लेकर युवा कवियों तक को आकर्षित किया है और आज हिंदी में बहुत अच्छी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं। इनकी लोकप्रियता भी बहुत है पर यह हिंदी की "मुख्य धारा" को अस्वीकार नहीं है। उसका प्रछन्न विरोध तक होता है। ग़ज़ल, गंगा-जमुनी संस्कार चेतना की बड़ी प्रतीक है। यह तेज़ी से अपनी जगह बना रही है और उस गैप को भर रही है, जो कविता और पाठक के बीच पैदा हो गया था।

यह भी पढ़ें: साहिर ने अलविदा कहने के बजाय कहा- मैं ज़िन्दा हूँ, यह मुश्तहर कीजिए