Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

साहिर ने अलविदा कहने के बजाय कहा- मैं ज़िन्दा हूँ, यह मुश्तहर कीजिए

साहिर ने अलविदा कहने के बजाय कहा- मैं ज़िन्दा हूँ, यह मुश्तहर कीजिए

Wednesday October 25, 2017 , 7 min Read

साहिर उस वक्त पैदा हुए, जब हिंदुस्तान का विभाजन नहीं हुआ था। सन 1947 में जब मुल्क का बंटवारा हुआ, भारत और पाकिस्तान अलग-अलग दो देशों में बंट गए तो साहिर लाहौर (पाकिस्तान) चले गए।

साहिर लुधियानवी (फाइल फोटो)

साहिर लुधियानवी (फाइल फोटो)


मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम का जिक्र किए बिना साहिर पर लिखी हर बात जैसे अधूरी रह जाती है। कहा जाता है, दोनो में ऐसी मोहब्बत थी कि अपने दर से साहिर के लौट जाने के बाद अमृता उनकी जूठी सिगरेंटें पीया करती थीं। 

साहिर के बारे में तमाम किस्से है। जावेद अख़्तर अपने पिता जां निसार अख्तर से लड़-झगड़कर प्रायः साहिर के ठिकाने पर पहुंच जाया करते थे। हुलिया देखते ही साहिर समझ जाते कि फिर घर में कुछ कर-धर के आया है।

साहिर लुधियानवी, इस नाम से भला कौन वाकिफ नहीं होगा, जिसे शायरी और फिल्में पसंद होंगी, जिसे आदमीयत से प्यार होगा और खुद से भी मोहब्बत होगी। साहिर ने आज (25 अक्तूबर) ही के दिन दुनिया को अलविदा कहा था। साहिर की पैदाइश पर एक मजेदार वाकया जिक्र करने लायक है। एक बार किसी पत्रकार ने उनका इंटरव्यू लेते हुए रस्मी अंदाज जब उनसे पूछा कि आप कब और कहां पैदा हुए, साहिर ने पलट कर सवालिया लहजे में कहा- यार तुमने असली प्रश्न तो छोड़ ही दिया, ये पूछो न कि क्यों पैदा हुए?

रेहान फ़ज़ल के शब्दों में साहिर लुधियानवी का हुलिया कुछ यूं था- साढ़े पाँच फ़ुट का क़द, जो किसी तरह सीधा किया जा सके तो छह फ़ुट का हो जाए, लंबी-लंबी लचकीली टाँगें, पतली सी कमर, चौड़ा सीना, चेहरे पर चेचक के दाग़, सरकश नाक, ख़ूबसूरत आँखें, आंखों से झींपा –झींपा सा तफ़क्कुर, बड़े बड़े बाल, जिस्म पर क़मीज़, मुड़ी हुई पतलून और हाथ में सिगरेट का टिन। साहिर के दोस्त प्रकाश पंडित कुछ इस तरह उनसे परिचय कराते हैं- साहिर अभी-अभी सो कर उठा है (प्राय: 10-11 बजे से पहले वो कभी सो कर नहीं उठता) और नियमानुसार अपने लंबे क़द की जलेबी बनाए, लंबे-लंबे पीछे को पलटने वाले बाल बिखराए, बड़ी-बड़ी आँखों से किसी बिंदु पर टिकटिकी बाँधे बैठा है (इस समय अपनी इस समाधि में वो किसी तरह का विघ्न सहन नहीं कर सकता... यहाँ तक कि अपनी प्यारी माँजी का भी नहीं, जिनका वो बहुत आदर करता है) कि यकायक साहिर पर एक दौरा सा पड़ता है और वो चिल्लाता है- चाय!....और सुबह की इस आवाज़ के बाद दिन भर, और मौक़ा मिले तो रात भर, वो निरंतर बोले चला जाता है।

मित्रों- परिचितों का जमघटा उस के लिए दैवी वरदान से कम नहीं। उन्हें वो सिगरेट पर सिगरेट पेश करता है (गला अधिक ख़राब न हो इसलिए ख़ुद सिगरेट के दो टुकड़े करके पीता है, लेकिन अक्सर दोनों टुकड़े एक साथ पी जाता है।) चाय के प्याले के प्याले उनके कंठ में उंड़ेलता है और इस बीच अपनी नज़्मों- ग़ज़लों के अलावा दर्जनों दूसरे शायरों के सैकड़ों शेर, दिलचस्प भूमिका के साथ सुनाता चला जाता है-

मैं ज़िन्दा हूँ, यह मुश्तहर कीजिए। मेरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए।

ज़मीं सख़्त है आसमां दूर है बसर हो सके तो बसर कीजिए।

सितम के बहुत से हैं रद्द-ए-अमल ज़रूरी नहीं चश्म तर कीजिए।

वही ज़ुल्म बार-ए-दिगर है तो फिर वही ज़ुर्म बार-ए-दिगर कीजिए।

कफ़स तोड़ना बाद की बात है अभी ख्वाहिश-ए-बाल-ओ-पर कीजिए।

साहिर उस वक्त पैदा हुए, जब हिंदुस्तान का विभाजन नहीं हुआ था। सन 1947 में जब मुल्क का बंटवारा हुआ, भारत और पाकिस्तान अलग-अलग दो देशों में बंट गए तो साहिर लाहौर (पाकिस्तान) चले गए। एक बार मशहूर राइटर ख़्वाजा अहमद अब्बास का उनके नाम एक पत्र 'इंडिया वीकली' मैग्जीन में छपा। बात साहिर तक पहुंची। वह अपनी मां के साथ भारत लौट आए। साहिर को शराब और सिगरेट पीने की बुरी आदत थी। उसी आदत ने उन्हें मौत के दहाने तक पहुंचा दिया। साहिर के बारे में तमाम किस्से है। जावेद अख़्तर अपने पिता जां निसार अख्तर से लड़-झगड़कर प्रायः साहिर के ठिकाने पर पहुंच जाया करते थे। हुलिया देखते ही साहिर समझ जाते कि फिर घर में कुछ कर-धर के आया है।

वह प्यार से जावेद को लेकर नाश्ते पर फुसला बैठते। नाश्ता के दौरान ही जावेद उस दिन साहिर को सारी आपबीती सुना डालते। कहते हैं कि साहिर ने जावेद अख्तर को बेटे की तरह पाला था। जावेद इतने गुस्सैल थे कि एक बार तो साहिर से भी लड़कर कहीं चले गए। उन्हें इस बात से ऐतराज होता था कि साहिर ने मेरे बाप को भी सिर पर चढ़ा रखा है। साहिर जितने बड़े शायर, नग्मानिगार, हर दिल अजीज, खुशगवार इंसान थे, उतने ही हाजिर जवाब भी।

फिल्मकार यश चोपड़ा और संगीतकार रवि शरमा के साथ साहिर

फिल्मकार यश चोपड़ा और संगीतकार रवि शरमा के साथ साहिर


एक बार दिल्ली में स्टार पब्लिकेशंस के मालिक अमर वर्मा की मुलाकात हुई। उस वक्त वर्मा ने स्टार पॉकेट बुक्स में एक रुपये क़ीमत में एक सिरीज़ शुरू की थी। वह चाहते थे कि उसकी पहली किताब साहिर की हो। उन्होंने जैसे ही साहिर से कहा कि वह उनकी किताब छापने की इजाज़त चाहते हैं। साहिर ने तपाक से कहा- 'मेरी तल्ख़ियाँ क़रीब-क़रीब दिल्ली के हर प्रकाशक ने छाप दी है बिना मेरी इजाज़त लिए हुए. आप भी छाप दीजिए। जब मैंने ज़ोर दिया तो उन्होंने कहा कि आप मेरे फ़िल्मी गीतों का मजमुआ छाप दीजिए, गाता जाए बनजारा के नाम से' -

सदियों से इन्सान यह सुनता आया है। दुख की धूप के आगे सुख का साया है।

हम को इन सस्ती ख़ुशियों का लोभ न दो, हम ने सोच समझ कर ग़म अपनाया है।

झूठ तो कातिल ठहरा उसका क्या रोना, सच ने भी इन्सां का ख़ून बहाया है।

पैदाइश के दिन से मौत की ज़द में हैं, इस मक़तल में कौन हमें ले आया है।

अव्वल-अव्वल जिस दिल ने बरबाद किया, आख़िर-आख़िर वो दिल ही काम आया है।

उतने दिन अहसान किया दीवानों पर, जितने दिन लोगों ने साथ निभाया है।

मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम का जिक्र किए बिना साहिर पर लिखी हर बात जैसे अधूरी रह जाती है। कहा जाता है, दोनो में ऐसी मोहब्बत थी कि अपने दर से साहिर के लौट जाने के बाद अमृता उनकी जूठी सिगरेंटें पीया करती थीं। बात 1944 की है। अमृता प्रीतम एक मुशायरे में शिरकत कर रही थीं। वहां उर्दू-पंजाबी के नामवर शायर भी थे। साहिर लुधियानवी पर अमृता की पहली नज़र भी इसी मुशायरे में पड़ी थी। अमृता, साहिर की शख्सियत के बारे में जानकर दिल को उस ओर झुकने से रोक न सकीं। अमृता का दीवाना इश्क़ उस महफिल से ही साहिर की इबादत करने लगा। अमृता कौ सौहर तो इमरोज थे लेकिन उन्हें मोहब्बत साहिर से थी। 'रसीदी टिकट' में अमृता ने अपने उस इश्क का ज़िक्र किया है- ‘जब साहिर मुझसे मिलने लाहौर आते।

वो हमारे दरम्यान रिश्ते का विस्तार बन जाता। मेरी खामोशी का फैलाव हो जाता। मानो ऐसे जैसी मेरी बगल वाली कुर्सी पर आकर वो चुपचाप चले गए हो। वो आहिस्ता से सिगरेट जलाते, थोड़ा कश लेकर उसी आधी छोड़ देते। जली सिगरेट को बीच में छोड़ देने की आदत सी थी साहिर में। अधजली सिगरेट को रखकर नयी जला लेते थे। जैसे हमेशा कुछ बेहतर तलाश रहे हों। साहिर की अधूरी सिगरेट को संभाल कर रखना सीख लिया था मैंने। अकेलेपन में यह मेरी साथी थी। उन्हें उंगलियों में थामना मानो साहिर का हाथ थामना था।

उनकी छुअन को महसूस करना था। सिगरेट की लत मुझे ऐसे ही लगी। साहिर ने बहुत बाद में मुझसे अपने इश्क़ का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि वो मेरे घर के पास घंटों खड़े रहकर खिड़की खुलने का इंतजार करते थे। घर के नुक्कड़ पर आकर पान खरीदते, सिगरेट सुलगाते या फिर हाथ में सोडे का गिलास ले लेते।‘ साहिर सिर्फ बेहतर आशिक ही नहीं, इंसानियत के बेलौस गायक भी थे। वह लिखते हैं -

मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है कि शायद मेरे दिल को इश्क़ के नग़्मों से नफ़रत है

मुझे हंगामा-ए-जंग-ओ-जदल में कैफ़ मिलता है मेरी फ़ितरत को ख़ूँरेज़ी के अफ़सानों से रग़्बत है

मगर ऐ काश! देखें वो मेरी पुरसोज़ रातों को मैं जब तारों पे नज़रें गाड़कर आसूँ बहाता हूँ

तसव्वुर बनके भूली वारदातें याद आती हैं तो सोज़-ओ-दर्द की शिद्दत से पहरों तिलमिलाता हूँ

मैं शायर हूँ मुझे फ़ितरत के नज़्ज़ारों से उल्फ़त है मेरा दिल दुश्मन-ए-नग़्मा-सराई हो नहीं सकता

मुझे इन्सानियत का दर्द भी बख़्शा है क़ुदरत ने मेरा मक़सद फ़क़त शोला नवाई हो नहीं सकता

मेरे सरकश तरानों की हक़ीक़त है तो इतनी है कि जब मैं देखता हूँ भूख के मारे किसानों को

ग़रीबों को, मुफ़्लिसों को, बेकसों को, बेसहारों को सिसकती नाज़नीनों को, तड़पते नौजवानों को।

यह भी पढ़ें: क्यों थी आखिरी बादशाह ज़फ़र को हिंदुस्तान से मोहब्बत