अदम के अहसास में आदमी की बेअदब त्योहारी
श्यामनारायण पांडेय अक्सर कहा करते थे- चिट्ठी में कुछ और है, दरसल (दरअसल) में कुछ और। दरअसल, अदम इसलिए अक्सर याद आते हैं कि उनके शेरों में असली हिंदुस्तान बसता है।
बाजार में फुलझड़ियां फूट रही हैं, जैसे सारा आसमान प्रकाशमय हो उठा है। इस बीच झारखंड में एक बच्ची ने भूख से दम तोड़ दिया। देश भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है, कुछ समझ नहीं आता ढेर सारे 'समझदार' लोगों को। हमारे समय में भूख की बात करना पिछड़ापन है, दुख साझा मत करिए, बस आसमान में उड़ते रहिए हवा-हवा। उजाले की भीख भी बड़े काम की होती है। मिट्टी का एक टोकरी दीया 10 रुपए में, प्लॉस्टिक के एक दीए की कीमत पचास से डेढ़ सौ रुपए तक। मन रो रहा है, बाजार गा रहा है। मुफ्त का मनमाना घोट-निगल कर सयाने लोग नैतिकता, देशभक्ति, शांति-सद्भावना का पाठ पढ़ा रहे हैं। अभाव में धन तेरस पर अदम गोंडवी के बेटे आलोक का एक उलाहना साझा कर लेते हैं। अदम को इस दुनिया से गए मुद्दत बाद उस घर की आपबीती अब भला कौन कहे-सुने-
फटे कपड़ों में तन ढांके गुजरता हो जहाँ कोई,
समझ लेना वो पगडंडी 'अदम' के गाँव जाती है।
गोंडा जिले का 'आटा' है अदम गोंडवी का गांव। प्रवीण प्रणव बड़ी शिद्दत से उस मरहूम शायर के शब्दों का चित्र खींचते हैं। किसी शायर का नाम आते ही ज़ेहन में दो तरह के अक्स उभरते हैं, या तो बेहद संभ्रांत बहुत पढ़े-लिखे, अच्छे कपड़े पहने शायर या फिर बाल दाढ़ी बढ़े हुए, झोला लटकाए कोई गरीब शायर। ऐसे में मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान सामने प्रगट हो और आते ही अपने शेर यूँ सुनाए- चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें, चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को। तो अन्दर कहीं दूर एक जोर का धमाका होता है और अब तक शायरों के जो बिम्ब आपने बनाए थे, सब टूटते नज़र आते हैं। ऐसा कारनामा करने वाले शायर हैं अदम गोंडवी। आर्थिक तंगी की वजह से उनकी पढ़ाई प्राइमरी स्तर तक ही हो सकी। पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से किशोरावस्था में ही पिता के साथ खेती में हाथ बटाना पड़ा। पढ़ाई छोड़ने के बाद भी स्कूल के पुस्तकालय से मांग कर किताबें पढ़ते रहे। किताब खरीद कर पढ़ने के पैसे नहीं थे। स्कूल ने उन्हें बस लिखना सिखाया पर क्या लिखना है, ये उन्होंने वक्त से सीखा, तभी तो ऐसे चुभते शेर वह दे पाए-
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे। अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे।
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए, चार छ: चमचे रहें, माइक रहे, माला रहे।
अदम गोंडवी कहते थे- 'मेरी हर गज़ल, मेरा हर शब्द वंचित तबके के प्रति समर्पित हैं। इनसे बाहर कहीं किसी वाद का मैं समर्थन नहीं करने वाला। अगर पाठक अपने पक्ष में कोई वाद खोज लेना चाहता हो, तो यह उसका हक है।'
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है। मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।
तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के, यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है।
अदम जी के पुत्र आलोक बताते हैं- 'जो लोग पिताजी के बहुत खास हुआ करते थे, वह भी उनके जाते ही भूल गए। न तो कोई मदद मिली और न अब कोई हाल चाल लेने आता है। जब किसी को अदम गोंडवी स्मृति अंक, विशेषांक छापना होता है या फिर पिताजी के नाम का इस्तेमाल करना होता है, तभी अपने-अपने मतलब भर याद किया जाता है। पैसे की कमी के कारण लखनऊ पीजीआई में पिता के इलाज में हीलाहवाली हुई। एक बार तो अस्पताल से बाहर भी कर दिया गया था। उन्होंने घर चलाने के लिए ढेर सारा कर्ज ले रखा था।'
उन्होंने बताया कि गोंडा के तत्कालीन जिलाधिकारी राम बहादुर ने मदद की तो ढाई लाख कर्ज चुकता हुआ। बाबूजी के साथ मैं भी कवि सम्मेलनों में जाता था। देखा था कि जिसने जो दे दिया, उन्होंने बिना ना नुकर ले लिया। वह कहते हैं, 'एक स्वनामधन्य प्रकाशक उनकी किताब की रायल्टी पी गया। बाबूजी के नाम पर होने वाले समारोहों में गुमनाम की तरह शामिल होकर उनकी विरुदावलियां आज भी सुनता रहता हूं। उनके त्याग की कीमतें हम चुका रहे हैं। ऐसा जनकवि होने से क्या मतलब कि पीढ़ियां बर्बाद हो जाएं।' तो ऐसे में 'दाएं हाथ की नैतिकता' और बाएं हाथ के कर्म पर धूमिल के बोल-कुबोल वक्त-बेवक्त बड़े सामयिक लगते हैं। श्यामनारायण पांडेय अक्सर कहा करते थे- चिट्ठी में कुछ और है, दरसल (दरअसल) में कुछ और। दरअसल, अदम इसलिए अक्सर याद आते हैं कि उनके शेरों में असली हिंदुस्तान बसता है-
ज़ुल्फ़-अंगडाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब, भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब।
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी, इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की क़िताब।
इस सदी की तिश्नगी का ज़ख़्म होंठों पर लिए, बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब।
चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए, डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब।
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