उत्तराखंड में जंगल की आग रोकने और शांत करने के उपाय
उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जहाँ दावानल की घटना ज्यादा होती है. केवल पिछले साल ही यहाँ लगभग 350 एकड़ जंगल जल कर राख हो गया. मानवजनित जलवायु परिवर्तन, भूमि के उपयोग में परिवर्तन और अनुचित भूमि प्रबंधन का परिणाम दावानल होता है, जो आमतौर पर इंसानों की लापरवाही के द्वारा आरम्भ होते हैं.
जंगल सदियों से मानव प्रजाति के लिए अनमोल संसाधन रहे हैं और इसके भरण-पोषण के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान करते रहे हैं. शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के आरम्भ के साथ भारत की जैवविविधता और पारिस्थितिकीय संतुलन के लिए महत्वपूर्ण हरे-भरे जंगलों के सामने बढ़ता खतरा खड़ा है : दावानल (जंगल की आग).
जैवविविधता का केंद्र, उत्तराखंड राज्य को केवल वर्षा और शीत के मौसम में तेज बारिश मिलती है. इस क्षेत्र में 7-8 महीने सुखाड़ के होते हैं और इन शुष्क महीनों में ज़रा-सी लापरवाही भी दावानल भड़कने का ख़तरा पैदा कर देती है, जो हवा के सहारे काफी तेजी से फैलता है.
बुनियादी कारण
भारतीय वन सर्वेक्षण के चौंकाने वाले रिकार्ड्स बताते हैं कि भारतीय वनों का 54.40% हिस्सा आकस्मिक आग के प्रति अरक्षित है. इसमें से 7.49% हिस्से में मध्यम रूप से बार-बार आग लग जाती है और 2.40% हिस्से में आग लगने की घटना का स्तर ऊँचा है. भारत के वनों का केवल 35.71% हिस्सा आग से बचा रहता है, जहाँ ऐसी कोई बड़ी घटना नहीं होती. इसके अलावा, देखा गया है कि पिछले दो दशकों में दावानल में दस-गुणा वृद्धि हुई है.
उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जहाँ दावानल की घटना ज्यादा होती है. केवल पिछले साल ही यहाँ लगभग 350 एकड़ जंगल जल कर राख हो गया. मानवजनित जलवायु परिवर्तन, भूमि के उपयोग में परिवर्तन और अनुचित भूमि प्रबंधन का परिणाम दावानल होता है, जो आमतौर पर इंसानों की लापरवाही के द्वारा आरम्भ होते हैं - अधिक विनाशकारी होने के लिए यह ईंधन और मौसम की परिस्थितियों का बार-बार सामना करते हैं.
इसलिए, गानोली और साधना गाँवों के ग्रामीणों के लिए जीवित रहने की लड़ाई जारी है, जो दावानल के निरंतर क्रोध के साथ संघर्ष कर रहे हैं. एक ग्रामीण और सामाजिक कार्यकर्ता, कन्हैया प्रसाद भट्ट ने इस स्थिति के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि पिछले कई वर्षों से इस वन-क्षेत्र में दावानल की घटनाएं बढ़ रही हैं, जिसके पीछे मोटरवेज पर चलने वाले राहगीरों द्वारा छोड़े गए बीड़ी-सिगरेट के जलते टुकड़े मुख्य कारण हैं. इसके अलावा, कुछ लोगों के निजी खेत वन-क्षेत्र के करीब स्थित हैं, और इस कारण से वे भी खेतों को साफ़ करने के लिए सूखी झाड़ियों में आग लगा दिया करते थे. मनमर्जी से आग लगा देना भी दावानल का प्रमुख कारण रहा है.
साथ ही, खोजों से संकेत मिलते हैं कि आग को लेकर संवेदनशील क्षेत्रों से वन चौकियों की अवस्थिति के फलस्वरूप भी जब तक वन कर्मचारी सम्बंधित स्थान पर पहुँचते हैं, तब तक जंगल का बड़ा इलाका जल कर राख हो जाता है. प्राकृतिक संसाधन के रूप में वनों के महत्व के बारे में जागरूकता की कमी भी इन घटनाओं का कारण बनती रही है.
ग्रामीणों के संघर्ष
जंगल ग्रामीणों के लिए जीवनरेखा के समान हैं. जैसा कि कन्हैया प्रसाद भट्ट ने आगे बताया, ये ग्रामीण पीढ़ियों से जंगलों पर आश्रित रहे हैं. वे जंगलों से जानवरों का चारा, जाड़े के मौसम के लिए जलावन, और दूसरे संसाधन एकत्र करते हैं. जंगल उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा था, जो उन्हें छाया, आश्रय, और अनेकानेक लाभ प्रदान करते रहे हैं.
लेकिन, दावानल ने उनसे हर चीज छीन लेने का खतरा पैदा कर दिया. आग ने धधकती लपटों का रूप ग्रहण किया और अपने रास्ते में आने वाली हर चीज का विनाश कर दिया, कभी वृक्षों की हरी-भरी छत वाली भूमि बंजर बन गई.
निर्णायक बिंदु
इन आग को नियंत्रित करना एक समस्या रही है, जिस पर अनेक पर्यावरणविद दशकों से ध्यान आकर्षित करते रहे हैं. लेकिन, पिछले साल (2022-2023) में उत्तराखंड के गानोली के वन-क्षेत्र में आशा की एक किरण दिखाई दी. 2022 की शुरुआत में एक निर्णायक क्षण आया था जब एक दिशानिर्देशक शक्ति, द हंस फाउंडेशन ने अग्नि निवारण एवं शमन परियोजना के अंतर्गत समुदाय को गोलबंद किया. इस सभा में ग्रामीणों को हमारे पारितंत्र में जंगल की महत्वपूर्ण भूमिका और उनके संरक्षण की फौरी ज़रुरत के बारे में जानकारी दी गई.
द हंस फाउंडेशन के अडिग समर्थन से छः लोग वालंटियर के रूप में आगे आये और जंगलों को आग से बचाने का महान कर्त्तव्य स्वीकार किया. शीशपाल सिंह भंडारी उनमें से एक उल्लेखनीय लीडर बन कर उभरे. इन बहादुर संरक्षकों का समर्थन करने के लिए द हंस फाउंडेशन ने उन्हें 5 लाख रुपये का दुर्घटना बीमा प्रदान किया. उनके सामूहिक प्रयासों से जंगलों की रक्षा और उनके संरक्षण के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद मिल रही है. इन सहयोगपूर्ण प्रयासों के परिणाम के रूप में शहर में एक समर्पित वालंटियर टीम का जन्म हुआ. आग के मौसम के दौरान उन लोगों ने द हंस फाउंडेशन के कर्मियों के साथ सहयोग करते हुए सिलसिलेवार जागरूकता कार्यक्रमों के संचालन में मदद की और अपने सन्देश को गाँव के बाहर आस-पास के समुदायों तक पहुँचाया. जंगलों का महत्व और उनके संरक्षण की तत्काल आवश्यकता सभी के मन में स्पष्ट हो गई.
सक्रिय दृष्टिकोण के साथ लम्बगाँव-राजाखेत सड़क के किनारे और मूल नामेन टोक तथा गनोली गड़ेरा के नाजुक अग्नि को लेकर संवेदनशील क्षेत्रों में सूखी झाड़ियों को हटाना भी शामिल किया गया. इसके फलस्वरूप आग लगने के खतरे में कमी आई. द हंस फाउंडेशन के प्रेरक सहयोग से गाँव का मुल नईं टोक जंगल संभावनाशील भविष्य से खिल उठा, क्योंकि पौष्टिक चारे और प्रशामक औषधीय प्रजातियों के हरे-भरे पौधों ने वहाँ अपनी जडें जमा लीं.
वालंटियरों के कठिन परिश्रम के माध्यम से ग्रामीणों ने वन संरक्षण की अपनी जिम्मेदारी ग्रहण की और अपनी प्राकृतिक धरोहर को बचाने के लिए प्रेरित हुए. द हंस फाउंडेशन के साथ सहयोग वनों के संरक्षण और आग की रोकथाम में सामुदायिक प्रयासों की शक्ति का उदाहरण है. उत्तराखंड के वन-क्षेत्र में सामूहिक कारवाई और जागरूकता की गाथा सुनाई देती है, क्योंकि इससे आशा की चमक पैदा हुई है और इन मूल्यवान परितंत्रों की रक्षा के लिए एकजुटता और संकल्प को बढ़ावा मिला है. इंसानों और कुदरत के बीच सामंजस्य की इस टिकाऊ विरासत में आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उज्जवल भविष्य की आशा दिखाई देती है.
प्रभाव
कन्हैया भट्ट अग्नि निवारण सम्बन्धी कोशिशों के कारण बढ़ी हुई जागरूकता की बात बताते हैं. छिटपुट दावानल को अब ग्रामीणों और अग्नि-शामक दस्ते द्वारा तुरंत नियंत्रित किया जा रहा है. वन संरक्षण और वृक्षारोपण संबंधी जागरूकता बढ़ी है. श्री कन्हैया प्रसाद भट्ट ने दावानल से मुक्त भविष्य के लक्ष्य के साथ द हंस फाउंडेशन के विलेज-टु-विलेज (गाँव-गाँव) अभियान को जारी रखने का आग्रह किया है.
भारत के वनों की रक्षा की एक साझा दूरदृष्टि द्वारा संगठित, कन्हैया भट्ट के प्रेरणादायक प्रयासों और द हंस फाउंडेशन (टीएचएफ) ने हरे-भरे और सुरक्षित कल की बुनियाद तैयार कर दी है.
वर्ष 2022 में उत्तराखंड में टीएचएफ के पायलट प्रोजेक्ट के तहत 2,12,410 ग्रामीणों को संवेदनशील बनाया गया और 500 गाँवों में 19,000 पौधे लगाए गए. वन विभाग की रिपोर्ट के अनुसार इन कार्यों की बदौलत जंगल में आग लगने की घटनाओं में उल्लेखनीय 76% की कमी आई है. इस जीत से प्रेरित होकर टीएचएफ इस कार्यक्रम को राज्य के और ज्यादा हिस्सों में आगे बढ़ाने पर पहले ही कार्य आरम्भ कर चुका है. भारत के वंचित वन-क्षेत्रों के सुदृढ़ भविष्य के संवर्धन के लिए इस फाउंडेशन ने अब इस बदलाव वाली पहल को राष्ट्रीय स्तर पर दूसरे राज्यों में भी ले जाने का लक्ष्य निर्धारित किया है.
Edited by रविकांत पारीक