Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

166 साल पहले आज की के दिन हुआ था पहला विधवा विवाह

यह कहानी इसलिए पढ़ना जरूरी है कि हमें अपने इतिहास का बोध रहे और यह भी कि इन डेढ़ सौ सालों में हमने कितनी लंबी यात्रा तय की है.

166 साल पहले आज की के दिन हुआ था पहला विधवा विवाह

Wednesday December 07, 2022 , 6 min Read

ये 166 साल पुरानी बात है. सन् 1856 और तारीख 7 दिसंबर. आज ही के दिन कोलकाता में विधिवत पहली बार एक 9 साल की लड़की, जो विधवा हो गई थी, उसका पुनर्विवाह किया गया था.

26 जुलाई को ईस्‍ट इंडिया कंपनी की सरकार ने हिंदू विधवा पुनविर्वाह एक्‍ट, 1856 पास किया था. लॉर्ड डलहौजी ने खुद इस नए कानून का ड्राफ्ट तैयार किया था और इसे पास किया था लॉर्ड केनिंग ने. 1829 में लॉर्ड विलियम बेंटिक द्वारा सती प्रथा का उन्‍मूलन किए जाने के बाद यह दूसरा बड़ा कानून था, जो कंपनी सरकार के द्वारा पास किया गया था.

कानून पास होने के चार महीने बाद यह पहली शादी हो रही थी.

 

कोलकाता के भद्रलोक का एक बड़ा हिस्‍सा तब भी इस शादी के खिलाफ था, लेकिन अब यह कानून बन चुका था और कानून के खिलाफ जाने की हिम्‍मत कोई नहीं कर सकता था. सामाजिक बहिष्‍कार वो कर सकते थे, सो उन्‍होंने किया भी. लेकिन भारी पुलिस और सुरक्षा व्‍यवस्‍था के बीच हो रही इस शादी को रुकवाने का जोखिम किसी ने नहीं उठाया.

दिसंबर का महीना था. हुबली किनारे बसे शहर की आर्द्र जलवायु में थोड़ी ठंडक आ गई थी. कोलकाता की सुकास स्‍ट्रीट पर बने एक दोमंजिला घर में शादी का माहौल था. यह घर था कृष्ण बंदोपाध्याय का, जो शहर के नामी प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रोफेसर थे. जिस लड़की का विवाह हो रहा था, जो कृष्ण बंदोपाध्याय के बेटी नहीं थी.

प्रोफेसर बंदोपाध्याय ने विवाह अपने घर से कर का फैसला किया था, क्‍योंकि उसकी लड़की के घरवाले इस विवाह से सहमत नहीं थे और अपने लिए कोई मुसीबत नहीं चाहते थे. कालीमती का घर बर्दवान के पास पालासदंगा नाम के एक गांव में था. छह बरस की आयु में कालीमती का विवाह हुआ था और गौना होने से पहले ही उसके पति की मृत्‍यु हो गई थी.

 

प्रोफेसर बंदोपाध्याय ईश्‍वरचंद विद्यासागर के उस सामाजिक आंदोलन और लंबी लड़ाई का हिस्‍सा रहे थे, जिसका नतीजा था हिंदू विधवा पुनविर्वाह एक्‍ट, जो कुछ ही महीने पहले पारित हुआ था.

उस दिन विवाह के बंधन में बंध रही वधू थी 9 बरस की कालीमती और वर थे  श्रीचन्द्र विद्यारत्ना. श्रीचन्द्र ईश्‍वरचंद विद्यासागर के साथी और आंदोलन में सहयोगी रहे थे. श्रीचन्द्र कोलकाता के पास 24 परगना में रहने वाले एक कर्मठ, सुदर्शन युवक थे, जो एक संस्‍कृत कॉलेज में शिक्षक थे. श्रीचन्द्र की मां लक्ष्‍मीमणि देवी खुद एक विधवा थीं और विद्यासागर की बदलाव की इस मुहिम में उनकी सहयोगी भी थीं.

स्‍वयं विधवा होने के कारण अपने बेटे के लिए एक विधवा लड़की का चुनाव करने पर उन्‍हें परिवार और समाज में काफी विरोधों का सामना करना पड़ा. लेकिन वो अपने फैसले पर अडिग थीं. गनीमत थी कि  प्रोफेसर बंदोपाध्याय, विद्यासागर, हरचंद्र घोष, सम्भूनाथ पंडित, द्वारकानाथ मित्र जैसे तमाम तत्‍कालीन बुद्धिजीवी, समाज सुधारक और भद्रलोक में रुतबा और रसूख रखने वाले लोग इस कोशिश में उनके साथ थे.

उस दिन प्रोफेसर बंदोपाध्‍याय के घर के सामने अच्‍छी-खासी पुलिस तैनात थी. बीच में एक बार को ऐसा लगा कि इस शादी का विरोध कर रहे लोग बवाल कर देंगे, लेकिन पुलिस ने भीड़ पर काबू पा लिया और विवाह शांति से निपट गया. ईश्‍वरचंद विद्यासागर ने स्‍वयं इस विवाह का खर्च उठाया था और सारी तैयारियां की थीं.

एक स्‍त्री का विधवा हो जाने या न होने पर भी तलाक लेकर दूसरी शादी करने जैसी जो चीज आज हमें इतनी सामान्‍य लगती है, वह कभी एक रूढि़वादी और बंद दिमाग वाले भारतीय समाज में बहुत बड़ा क्रांतिकारी कदम था. 1829 में सती प्रथा उन्‍मूलन कानून आने के पहले तो कम उम्र की विधवाओं को पति की जलती चिता के साथ ही जलाकर सती कर दिया जाता था.

वो इतना कूढ़मगज, सामंती और पुरुष प्रभुत्‍व वाला समाज था कि 7-8 बरस की छोटी-छोटी लड़कियों का विवाह अपने से उम्र में 20-20 साल बड़े पुरुषों से किया जाता था. भारतीय समाज के महान दार्शनिकों में से एक रवींद्रनाथ टैगोर का विवाह भी 22 साल की उम्र में अपने से 12 साल छोटी लड़की के साथ हुआ था. मृणालिनी देवी की उम्र तब 10 साल थी. यह प्रदेश के सबसे अमीर, कुलीन और पढ़े-लिखे परिवार की कहानी थी. अशिक्षित और गरीब परिवार तो 5-5 साल की उम्र में अपनी बेटियां बूढ़े लोगों से ब्‍याह देते थे. समाज में कोई भी इसे गलत नहीं मानता था.    

जहां स्त्रियों के लिए पति की मृत्‍यु के बाद जीवन तकरीबन समाप्‍त था, वहीं पुरुषों के लिए ऐसा नहीं था. वे पत्‍नी की मृत्‍यु होने पर तो किसी दूसरी अनछुई कुंवारी लड़की से विवाह कर ही सकते थे, एक पत्‍नी के जीवित रहते भी कई विवाह कर सकते थे. समाज और धर्मशास्‍त्रों में उन्‍हें हर तरह की छूट हासिल थी.

 

कानूनी तौर पर विधवा विवाह लागू होने से पहले दक्षिणारंजन मुखोपाध्याय नामक कोलकाता के एक धनी कुलीन व्‍यक्ति ने बर्दवान की रानी बसंता कुमारी से विवाह किया था, जो एक विधवा थीं. दक्षिणारंजन बहुत धनी और रुतबे वाले व्‍यक्ति थे, लेकिन विधवा स्‍त्री से विवाह करने के कारण उन्‍हें समाज में इतने तिरस्‍कार और बहिष्‍कार का सामना करना पड़ा कि वे कोलकाता में रह भी नहीं सके. वे शहर छोड़कर लखनऊ जाकर बस गए. रूढि़वाद की जड़ें समाज में इतनी गहरी थीं कि तमाम सामाजिक धन-बल के बावजूद लोगों ने दक्षिणारंजन का जीना दूभर कर दिया था.

यह जानना भी बड़ा रोचक है कि बात-बात पर धर्मशास्‍त्रों, पुराणों और हिंदू धर्म की महानता का आख्‍यान देने वाले हिंदू समाज के लिए विधवा विवाह का तर्क भी विद्यासागर ने आखिरकार एक धर्मशास्‍त्र में ही ढूंढा. कोलकाता की पब्लिक लाइब्रेरी में उन्‍होंने महीनों दिन-रात एक कर सारी किताबें खंगाल डालीं. आखिरकार उन्‍हें ‘पराशर संहिता’ में एक जगह यह लिखा मिला कि विधवा कन्‍या का पुनर्विवाह पूरी तरह धर्मसम्‍मत है. यही किताब आखिरकार 19 जुलाई 1856 को पास हुए विधवा विवाह कानून का आधार बनी.  

यह देखना भी रोचक है कि आज से डेढ़ सौ साल पहले कौन सा तबका विद्यासागर के समर्थन में पहले आगे आया. गरीब, कामगार, मजदूर और निचले तबके के लोग इस आंदोलन में अमीरों, कुलीनों, संभ्रांतों और भद्रलोक वालों से पहले भागीदार हुए. विद्यासागर की प्रशंसा और सम्‍मान में बंगाल के बुनकरों ने साडि़यों पर यह कविता बुनना शुरू कर दिया था -  

“बेचे थाको विद्यासागर, चिरजीबी होए”

(जीते रहो विद्यासागर, चिरंजीवी हो! )


Edited by Manisha Pandey