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कभी रेस्टोरेंट में घुसने में होती थी जिन्हें झिझक, आज छत्तीसगढ़ की वो महिलाएं चला रही कैंटीन

कभी रेस्टोरेंट में घुसने में होती थी जिन्हें झिझक, आज छत्तीसगढ़ की वो महिलाएं चला रही कैंटीन

Wednesday September 05, 2018 , 3 min Read

यह लेख छत्तीसगढ़ स्टोरी सीरीज़ का हिस्सा है...

कभी ऐसा भी वक्त था जब छत्तीसगढ़ के एक गांव में रहने वाली साधना कश्यप आमतौर पर रेस्टोरेंट के भीतर जाने से कतराती थीं, लेकिन आज नौ और महिलाओं के साथ सरगुजा जिले के अंबिकापुर कलेक्ट्रेट में कैंटीन चलाती हैं।

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 चार साल पहले साधना और उनके समूह की सदस्यों ने तत्कालीन कलेक्टर की पहल पर इस काम को शुरू करने का फैसला लिया था। यह काम राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत बिहान स्कीम के अंतर्गत चलाया गया था।

कभी ऐसा भी वक्त था जब छत्तीसगढ़ के एक गांव में रहने वाली साधना कश्यप आमतौर पर रेस्टोरेंट के भीतर जाती ही नही थीं। यही नहीं उन्हें घर के बाहर निकलना ज्यादा पसंद नहीं था। मतलब वह पूरी तरह से एक गृहिणी की तरह जीवन-यापन कर रही थीं और उन्हें बाकी दुनिया से जैसे कोई मतलब ही नहीं था। लेकिन आज साधना नौ और महिलाओं के साथ सरगुजा जिले के अंबिकापुर कलेक्ट्रेट में कैंटीन चलाती हैं। यह कैंटीन आसपास के इलाके में काफी पॉप्युलर है।

चार साल पहले साधना और उनके समूह की सदस्यों ने तत्कालीन कलेक्टर की पहल पर इस काम को शुरू करने का फैसला लिया था। यह काम राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत बिहान स्कीम के अंतर्गत चलाया गया था। बिहान स्कीम के तहत महिलाओं को उनकी पसंद के उद्यम शुरू करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। कलेक्टर ने साधना और उनके समूह को कलेक्ट्रेट में कैंटीन शुरू करने का मौका दिया था। उन्होंने स्वयं सहायता समूह का गठन किया। इस समूह में आने वाली सभी महिलाओं की पृष्ठभूमि एक सी थी।

अपने काम के बारे में बात करते हुए साधना अपने चेहरे पर मुस्कुराहट लिए कहती हैं, 'शुरू में तो काफी दिक्कत हुई थी। हममें से किसी को कोई अनुभव नहीं था और सभी महिलाएं शर्मीली भी थीं। लेकिन हमें लगा कि जो काम हम घर पर करते हैं अगर उसी काम को यहां अच्छे से करेंगे तो हमें पैसे भी मिलेंगे। मेरे पति ने भी मेरा हौसला बढ़ाया और हरसंभव मदद की।' हालांकि जब तत्कालीन कलेक्टर का तबादला हो गया तो लोग कहने लगे कि ये महिलाएं अब अपना उद्यम नहीं चला पाएंगी, लेकिन इन्होंने सबको गलत साबित कर दिया।

साधना के चेहरे की मुस्कुराहट बयां करती है कि ये महिलाएं आत्मविश्वास के मामले में किसी से कम नहीं हैं। उनके चेहरे पर आत्मविश्वास के साथ एक तरह की आत्मसंतुष्टि भी दिखती है। वह कहती हैं, 'हम इस कैंटीन से लाभ कमा रहे हैं और हम इसे आगे भी चलाना चाहते हैं। पहले जब मैं यहां काम करने आती थी तो हमें रिक्शा से आना पड़ता था लेकिन अब मेरा पास बाइक हो गई है। कैंटीन में काम करने वाली हर महिला महीने में कम से कम 5,000 रुपये कमा लेती है। दो महिलाओं ने तो कैंटीन से कमाए हुए पैसों से ही घर बनवा लिया।'

इन महिलाओं को जब भी अधिक पैसों की जरूरत होती है तो वे आपस में पैसों को लेकर सहमति बना लेती हैं और उस महीने अपनी कमाई का हिस्सा नहीं लेतीं। उन्हें उनका पैसा अगले महीने दे दिया जाता है। यह इन महिलाओं की आपसी समझ ही है जिसकी वजह से वे सफलतापूर्वक इस कैंटीन का संचालन कर रही हैं।

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