मातृभूमि से असीम प्रेम ने बनाया नजीब को कामयाबी की बेजोड़ कहानी का नायक
दोस्तों के साथ ‘चाय पर चर्चा’ के दौरान मिला था उद्यमी बनने का आइडिया ... जेब खर्च के लिए एयर टिकट कन्फर्म करवाने से शुरू हुआ था आज के बड़े उद्योगपति और उद्यमी नजीब का कारोबार ... नजीब के लिए धन-दौलत और शोहरत कमाना ही नहीं रहा है कारोबार का मकसद ... लोगों की मदद के मकसद से करते हैं कारोबार और कारोबार से होने वाले मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा भी लगाते हैं समाज-सेवा में
सत्तर के दशक में केरल से बहुत सारे लोग खाड़ी देशों की ओर पलायन करने लगे थे। खाड़ी देशों में उन दिनों विकास ने तेज़ रफ़्तार पकड़ी थी और वहां की सरकारों, कंपनियों और उद्योगपतियों को ‘मानव-श्रम और मानव-संसाधनों’ की सख्त ज़रुरत थी। समय की नजाकत का समझ कर कई सारे मलयालियों ने खाड़ी देशों की ओर रुख किया। लाखों की संख्या में मलयाली भाषी लोग खाड़ी देश गए और वहां नौकरियाँ पायीं। केरल के कई लोगों ने तो खाड़ी देशों में अपना कारोबार भी शुरू कर लिया। एक मायने में खाड़ी देशों के विकास ने कई मलयाली भाषियों की ज़िंदगी बदल दी। खाड़ी देशों में विकास ने जैसे ही रफ़्तार पकड़ी केरल के कई सारे लोगों को तरक्की की राह मिल गयी। जो लोग केरल में बेरोजगार थे उन्हें खाड़ी देशों में नौकरी मिली, जिनकी यहाँ तनख्वाह कम थी उन्हें वहां ज्यादा तनख्वाह पर नौकरी मिली। कुछ महीनों की मेहनत-मशक्कत ने कई सारे मलयालियों को गरीब से अमीर बना दिया था। जो बेघर थे, उनके अपने मकान हो गए। मूलभूत सुविधाओं से वंचित लोग भी खाड़ी देशों में हुई कमाई से संपन्न हो गए थे। खाड़ी देश केरल के लोगों ने लिए ‘अमीरी और तरक्की’ का सबसे अच्छा और बड़ा अड्डा बनकर उभरे।
सत्तर के दशक में केरल के गरीब और बेरोजगार लोगों के लिए अच्छी नौकरी सबसे बड़ा सपना हुआ करता था। उधर, जब खाड़ी देशों में विकास के काम ने रफ़्तार पकड़ी जब उन्हें बड़े पैमाने पर इंजीनियरों और मजदूरों की ज़रूरत पड़ी। इसी ज़रूरत को पूरा करने में केरल के लोग आगे रहे। मलयाली भाषियों के खाड़ी देशों की ओर रुख करने और खाड़ी देशों के लोगों द्वारा भी उनका बाहे पसार कर स्वागत करने के पीछे कई कारण थे। केरल के लोग मेहनती और वफादार थे, खाड़ी देशों से केरल की दूरी भी ज्यादा नहीं थी और खाड़ी के कारोबारियों के लिए केरल के लोग सबसे किफायती थे। एक दूसरे की देखा-देखी केरल के कई लोग खाड़ी देश चले गए और वहां अलग-अलग तरह के काम करना शुरू किया।
उन दिनों किसी न किसी खाड़ी देश जाने की ललक हर मलयाली में थी। अमूमन हर नौजवान यही सपना देख रहा था कि वो खाड़ी जाएगा, नौकरी पाएगा और खूब रुपये कमाएगा। ये और बात है कि खाड़ी के देशों में कई भारतीयों को कई तरह की परेशानियों का भी सामना करना पड़ता था। नजीब के कई साथियों ने भी खाड़ी देशों का रुख किया था। नजीब के सामने भी रास्ता खुला था। वे पढ़े-लिखे थे और उन्हें अच्छी नौकरी भी मिल सकती थी। लेकिन, उनके ख्याल दूसरे मलयालियों से बिलकुल अलग थे। मन में स्वदेश का प्यार इतना मजबूत था कि उसने नजीब को विदेश जाने से रोका। वे स्वदेश में रहकर ही कुछ बड़ा करना चाहते थे। मातृभूमि से उनका लगाव इतना गहरा था कि वे अपने सबसे बड़े दुःस्वप्न में भी भारत छोड़ने की सोच नहीं सकते थे।
नजीब ने अपने ज्यादातर हमउम्र नौजवानों से बिलकुल उलट फैसला लिया। उनका फैसला था केरल में ही रहना और मातृभूमि के लिए काम करना। अपने इसी फैसले की वजह से नजीब वो सबकुछ हासिल कर पाए जो लाखों लोग विदेश जाकर भी हासिल नहीं कर पाए। एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे नजीब ने भारत में रहकर ही न सिर्फ करोड़ों रुपयों की धन-संपत्ति कमाई बल्कि कई लोगों को रोज़गार के अवसर दिए। नजीब ने हजारों लोगों को नौकरियाँ दीं, कईयों को उद्यमी बनाया और लाखों लोगों की ज़िंदगी को रोशन किया। नजीब ने अपनी उपलब्धियों से न केवल केरल बल्कि भारत के कामयाब और बड़े उद्यमियों और उद्योगपतियों में अपनी बेहद ख़ास पहचान बनायी है। नजीब की कहानी भी कामयाबी की नायाब कहानी है। नजीब में चुनौतियों से डटकर मुकाबला करने के लिए ज़रूरी मज़बूत जिगर है, तेज़ कारोबारी दिमाग है और इन सबसे ऊपर लोगों की मदद के लिए हमेशा प्रेरित करने वाला बड़ा दिल है। कामयाबी की इस अनोखी कहानी में संघर्ष भी है। भेड़-चाल को न अपनाकर; नेक इरादों के साथ लीक से हटकर काम करने से किस तरह नायाब कामयाबी मिल सकती है इस बात की खूबसूरत मिसाल है नजीब की कहानी।
कामयाबी की एक बेजोड़ कहानी के नायक नजीब का जन्म केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम यानी त्रिवेंद्रम शहर से करीब 20 किलोमीटर दूर मुरुअक्कुमपुरा गाँव में हुआ। नजीब के पिता मूल रूप से पेरिमातुरा गाँव के रहने वाले थे जो मुरुअक्कुमपुरा से करीब पांच किलोमीटर दूर है और अरब सागर के करीब भी। शादी के बाद नजीब के पिता ने मुरुअक्कुमपुरा में सात एकड़ ज़मीन खरीदी और फिर वहीं आकर बस गए। मुरुअक्कुमपुरा गाँव पहाड़ी इलाके में है और नजीब के पिता ने यहाँ खेती-बाड़ी शुरू की। नजीब के पिता ने अपने भाइयों के साथ मिलकर कोइर (नारियल की जटा) का भी कारोबार किया। तीन भाई मिलकर जो नारियल की जटा बनाया करते थे उसे नजीब के पिता खुद अल्लेपी यानी आलप्पुष़ा ले जाकर बेचा करते थे।
अल्पायु में ही नजीब के सिर से उनकी माँ का साया उठ गया था। पिता ने ही नजीब और उनके दूसरे भाइयों की परवरिश की। आगे चलकर नजीब के पिता ने दूसरी शादी कर ली और सौतेली माँ ने घर-परिवार की जिम्मेदारियां संभालने में नजीब के पिता की मदद करना शुरू किया। नजीब जब पढ़ने-लिखने लायक हुए तब उनका दाखिला गाँव के ही सरकारी स्कूल में करवाया गया। नजीब पढ़ाई-लिखाई में तेज़ थे और पिता को लगा कि किसी अच्छे स्कूल में दाखिला दिलवाने से नजीब का भविष्य उज्जवल होगा। पिता ने नजीब का दाखिला त्रिवेंद्रम के सैंट जोसेफ़ स्कूल में करवा दिया। दो साल तक मिशनरी स्कूल में पढ़ने के बाद नजीब को वापस गाँव के स्कूल में लौटना पड़ा। नौंवीं और दसवीं की पढ़ाई नजीब ने गाँव के सरकारी स्कूल से ही पूरी की। नौंवीं की पढ़ाई के दौरान नजीब केरल स्टूडेंट्स यूनियन के कुछ छात्र नेताओं के संपर्क में आये। इन्हीं छात्र नेताओं के प्रभाव में नजीब किशोरावस्था से ही छात्र-राजनीति से जुड़ गए। हाई स्कूल के दिनों में नजीब ने कई छोटे-बड़े राजनीतिक कार्यक्रमों में शिरकत की। केरल स्टूडेंट्स यूनियन के कार्यक्रमों में सक्रीय भागीदारी की वजह से नजीब को बहुत कुछ नया सीखने को मिला। उन्हें कई सारे लोगों से मिलने और उनकी समस्याओं को जानने का मौका मिला। नेताओं के प्रभाव की वजह से ‘लीडर’ बनने का ख्वाब भी नजीब के मन में हिलोरे मारने लगा था।
दसवीं पास करने के बाद नजीब ने नीलमेल के एनएसएस कॉलेज में दाखिला लिया। प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स पूरा करने के बाद नजीब ने त्रिवेंद्रम के मशहूर मार इवानिओस कॉलेज से ग्रैज्वेशन की पढ़ाई पूरी की। ग्रेजुएट बनने के बाद नजीब ने प्रेस क्लब-त्रिवेंद्रम से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया। डिप्लोमा की पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने कॉरेस्पोंडेंस कोर्स के ज़रिये अमेरिका के न्यूपोर्ट विश्वविद्यालय से एमबीए की पढ़ाई भी की।
बचपन से ही नजीब अपने पिता से सबसे ज्यादा प्रभावित रहे। वे अपने पिता को दिन-रात मेहनत करता देखते थे। पिता उनके किसानी करने के साथ-साथ कारोबार भी करते थे। पिता ने बड़े ही लाड़-प्यार से नजीब की परवरिश की। पिता ने बहुत पहले ही नजीब की आँखों में ‘बड़ा आदमी’ बनने की चमक देख ली थी और यही वजह थी कि उन्होंने अपने लाड़ले की पढ़ाई-लिखाई में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी। नजीब कहते हैं, ““मेरे लिए मेरे पिता ही सब कुछ थे। बचपन से मैंने अपने पिता को खेती-बाड़ी करते हुए देखा है। वो कोई बड़े कारोबारी तो नहीं थे लेकिन उनका छोटा-मोटा कारोबार था। बचपन से ही मैं कारोबार के बारे में जानने समझने लगा था लेकिन पढ़ाई के दौरान मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं आगे चलकर कारोबार करूंगा।” नजीब को बचपन से ही न सिर्फ राजनीति से जुड़े विषयों और कार्यक्रमों में दिलचस्पी थी बल्कि उनका रुझान सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों में भी था। स्कूल और कॉलेज के दिनों में नजीब ने स्कूल की किताबों के अलावा भी कई सारी किताबें पढ़ डाली थीं। नजीब को कविताएँ और कहानियाँ लिखने का शौक भी लगा था और उन्होंने किशोरावस्था में साहित्यिक रचनाएँ भी कीं। नजीब के लेख, उनकी कविताएँ और कहानियाँ अलग-अलग जगह प्रकाशित भी हुईं।
कॉलेज के दिनों में नजीब ने कलेक्टर बनने का सपना देखना शुरू कर दिया था। वे जानते थे कि आईएएस की परीक्षा पास करना आसन नहीं है लेकिन उन्होंने कलेक्टर बनने की तैयारी शुरू कर दी थी। नजीब ने बचपन से ही गरीबी और पिछड़ेपन को करीब से देखा था, छात्र राजनीति में सक्रीय होने की वजह से वे समाज की समस्याओं से भी भली-भांति परिचित थे। वे कलेक्टर बनकर लोगों की गरीबी दूर करना चाहते थे। नजीब को चूँकि बचपन से ही अखबार पढ़ने की भी आदत थी वे अखबार और पत्रकार की ताकत को भी अच्छी तरह से जानते थे। उन्होंने मन में ठान ली थी कि वे आगे चलकर या तो कलेक्टर बनेंगे या फिर पत्रकार। परिवारवाले ख़ास तौर पर पिता भी चाहते थे नजीब कलेक्टर बनें या फिर बड़ा पत्रकार।
पत्रकार बनाने का सपना लिए ही नजीब ने ग्रेजुएशन के बाद त्रिवेंद्रम के प्रेस क्लब में पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स में दाखिला लिया था। लेकिन, पत्रकारिता का डिप्लोमा कोर्स करने के दौरान कुछ घटनाएं ऐसी हुईं जिसने नजीब को उद्यमी बना दिया। दिलचस्प बात ये भी है डिप्लोमा कोर्स ज्वाइन करने के बाद नजीब के खुद को राजनीतिक गतिविधियों से भी दूर कर लिया और केरल स्टूडेंट्स यूनियन से भी एक मायने में अपना संबंध विच्छेद कर लिया। वजह साफ़ थी – कलेक्टर या फिर पत्रकार बनने के लिए निष्पक्ष और स्वतंत्र होना ज़रूरी था। नजीब के मुताबिक, “पत्रकारिता में डिप्लोमा के दिन जीवन का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट साबित हुए।” नजीब जब मार इवानिओस कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे तब उनकी दोस्ती राजन थॉमस वरघीस नामक युवक से हुई थी। राजन ने भी नजीब के साथ प्रेस क्लब में पत्रकारिता के डिप्लोमा कोर्स में दाखिला लिया था। प्रेस क्लब में नजीब और राजन की दोस्ती प्रियान चाको उम्मन से हो गयी। उम्मन इंडियन एयरलाइन्स में नौकरी करते थे और तीनों दोस्तों में वे अकेले ऐसे थे जिनकी खुद की कमाई थी। नजीब और राजन – दोनों को अपने खर्चों के लिए परिवार पर निर्भर होना पड़ता था। तीनों के बीच दोस्ती का रंग खूब जमा। डिप्लोमा कोर्स की क्लास पूरी हो जाने के बाद तीनों दोस्त यानी नजीब, राजन और उम्मन कॉफी हाउस जाते और वहां पर अलग-अलग मुद्दों पर बातें करते। कभी राजनीति पर चर्चा होती तो कभी किसी किताब की समीक्षा की जाती। कभी सांस्कृतिक गतिविधियों के बारे वार्ता-लाप होता तो कभी अखबारों में छपी सुर्ख़ियों पर बहस होती। एक दूसरे के सुख-दुःख भी बांटे जाते। भविष्य को लेकर भी योजनाएँ बनाई जातीं। इसी मेल-मुलाकात और बातों के बीच एक दिन अचानक नया मोड़ आ गया। उन दिनों तीनों दोस्तों में सिर्फ उम्मन की नौकरी थी। नजीब और राजन को घर से जेबखर्च मिलता था,क्योंकि वे दोनों कमा नहीं रहे थे। जब शाम में तीनों दोस्त कॉफ़ी हाउस में मिलते थे और गपशप के दौरान चाय, कॉफी और मसाला डोसा खाते-पीते तो उम्मन ही खर्च करते थे। हर शाम उम्मन ही कॉफ़ी हाउस का बिल भरा करते थे। कुछ दिन तक तो ठीक था लेकिन एक दिन नजीब को एक ही दोस्त के हर बार बिल चुकाने की बात अजीब लगी। उन्हें बहुत असहज लगा और मन में ग्लानी-सी होने लगी। एक शाम नजीब ने अपने मन की बात अपने दोस्त उम्मन से कह ही डाली और बता दिया कि हर बार उनका बिल चुकाना सही नहीं है। नजीब के मन की बात सुनकर उम्मन ने कहा – “मैं तो बस दोस्ती का फ़र्ज़ निभा रहा हूँ, और तुम दोनों उस समय तक चिंता मत करो जब तक तुम दोनों कमाने न लग जाओ।” उम्मन ने अपने दोनों दोस्तों को ये भी जता दिया कि अगर वे बिल चुकाने को असहजता से लेंगे तो उन्हें बुरा लगेगा।
लेकिन, कुछ ही दिनों में नजीब की इस चिंता का हल निकल ही आया। एक दिन उनके गाँव के एक शख्स ने उन्हें एयर टिकट कंफर्म करवाने के लिए कहा। नजीब को लगा कि इंडियन एयरलाइन्स में काम करने वाला उनका मित्र उम्मन उनकी इस काम में मदद कर सकता है। नजीब ने टिकट कंफर्म हुआ या नहीं ये बात पता लगाने की ज़िम्मेदारी अपने दोस्त उम्मन को ही सौंपी। उम्मन की मदद की वजह से वह टिकट कंफर्म हो गया। टिकट कंफर्म करवाने की इस घटना के बाद उम्मन के दिमाग की बत्ती जली। उम्मन ने नजीब को अपने गाँव और आसपास के इलाकों के लोगों के टिकट कंफर्म करवाने और इसके बदले सेवा-शुल्क लेने की सलाह दी। उम्मन ने नजीब को भरोसा दिया कि टिकट कंफर्म करवाने में वे उनकी मदद कर दिया करेंगे। उम्मन ने ये भी कहा कि ये काम करने से लोगों की मदद भी होगी और साथ-साथ नजीब को जेब-खर्च भी मिल जाएगा। सेवा-शुल्क से मिलने वाली रकम से नजीब भी अपने दोस्तों को कॉफ़ी हाउस में चाय भी पिला सकेंगे और डोसा भी खिला सकेंगे। नजीब को उम्मन का सुझाव पसंद आया। अपने दोस्त की सलाह पर नजीब ने अपने गाँव में एक छोटी-सी ट्रावेल एजेंसी शुरू कर दी। उम्मन ने इस एजेंसी का नाम रखा एयर ट्रेवल इंटरप्राइजेज।
दिलचस्प बात ये भी है कि उन दिनों प्रेस क्लब में पुरानी हो चुकी कुछ कुर्सियाँ की नीलामी हुई थी और इसी नीलामी में नजीब ने अपनी ट्रावेल एजेंसी के दफ्तर के लिए कुर्सियां ख़रीद लीं। नजीब ने पुत्तिरिकन्ने मैदान से टेबल भी खरीदे और फिर अपने गाँव में एक छोटा-सा कार्यालय खोल लिया। कार्यालय के बाहर ‘एयर ट्रावेल इंटरप्राइजेज’ का बोर्ड भी लगा दिया। जब लोगों ने देखा कि उन्हें अपने ही गाँव में एयर ट्रेवल सेवाएँ मिल रही हैं, नजीब को काम भी मिलने लगा। इस तरह से नजीब उद्यमी बन गए। नजीब सुबह से शाम तक अपने गाँव में अपने दफ्तर में लोगों के एयर टिकट कंफर्म करने की ज़िम्मेदारी लेते और शाम को पढ़ने प्रेस क्लब त्रिवंद्रम चले जाते। पत्रकारिता की क्लास पूरी होने के बाद तीनों दोस्त कॉफ़ी हाउस में मिलते और शाम के नाश्ते पर चर्चा होती।
एक बेहद ख़ास मुलाकात में नजीब ने उद्यमिता के अपने शुरूआती दौर की यादें ताज़ा करते हुए बताया,“उन दिनों ही केरल से खाड़ी देशों की जाने की शुरूआत हुई थी। मैं सुबह से दोपहर तक उस दफ्तर में बैठता और दोपहर के बाद मैं त्रिवेंद्रम चला आता। पच्चीस-पचास जो भी मिलते शाम की मीटिंग्स पर खर्च हो जाते। इसी तरह एक साल बीत गया और हम सब खुश थे। इसी बीच पत्रकारिता का कोर्स भी पूरा हो गया। उस वक्त उम्मन ने कहा कि कोर्स पूरा हो गया है, अब तुम यह व्यापार बंद कर दो और कोई अच्छा करियर चुन लो। लेकिन मैंने कहा -मेरा इस व्यापार को बंद करने का इरादा नहीं है। उन दिनों कई लोग टिकट के लिए मेरे पास आने लगे थे। उनसे बातें होती थीं, वो लोग अपनी कहानियाँ मुझे सुनाते,अपनी मेहनत के बारे में बताते। अपनी समस्याएं सुनाते थे। घर और गल्फ देशों में उनकी काफी सारी समस्याएँ थीं। मुझे लगा कि यह लोगों से मेलजोल का अच्छा व्यापार है, इसे जारी रहना चाहिए। मुझे ये भी लगा था कि मैं अपने इस काम के ज़रिये लोगों की मदद कर सकता हूँ, ऐसे लोग जो गरीब हैं, जिनकी मदद करने वाला कोई नहीं है। कारोबार तो था ही, मुनाफा भी था, लेकिन मेरे लिए इस काम में इस वजह से दिलचस्पी बढ़ गयी थी क्योंकि इस काम में सेवा थी। लोगों की मदद करने के बाद जब मैं उनके चहरे पर खुशी देखता था तो मुझे भी खुशी मिलती थी। मुझे ऐसी खुशी पहले किसी काम में नहीं मिली थी। मैंने उम्मन से साफ़ कह दिया था कि मैं इस काम को नहीं छोडूंगा। मुझे अब भी अच्छी तरह से याद है उम्मन ने कहा था – ये काम आसान नहीं है, ये मुश्किल वाला काम है, लेकिन न जाने मेरा मन इसी काम में लग गया था और मैंने इस काम को जारी रखा।” दरअसल, वो समय ऐसा था जब केरल के लोगों के लिए सऊदी अरब और खाड़ी के दूसरे देशों के दरवाज़े खुल गये थे। बड़ी संख्या में लोग अरब देश जा रहे थे और नजीब के पास भी अरब जाने का मौका था। नजीब चाहते तो खाड़ी के किसी देश जाकर अच्छी नौकरी पा सकते थे, लेकिन वे विदेश जाना ही नहीं चाहते थे। वे अपने देश में रहकर ही कुछ करना चाहते थे। वे कहते हैं, “मेरे सिद्धांतों ने मुझे अरब जाने से रोका। मैं सोचता था मैं यहाँ पैदा हुआ हूँ, मैं क्यों दूसरे देश को जाऊँ। हालाँकि मैं दूसरे देश जाने वाले लोगों की मदद करता था, लेकिन काम के लिए विदेश जाने को मैंने खुद कभी भी प्राथमिकता नहीं दी। मुझे यकीन था कि मैं यहाँ पैदा हुआ हूँ, तो मुझे खाना भी यहीं मिलेगा। खुदा ने जब मुझे यहाँ पैदा किया है तो मेरे लिए रोटी का इंतज़ाम भी यहीं किया होगा, ऐसे में फिर दाना-पानी के लिए दूसरे देश जाने की ज़रुरत क्या है? उन दिनों हर कोई गल्फ जा रह था, विदेश में काम करते हुए लोग खूब रुपये कमा रहे थे, लेकिन मैं यहीं पर रहकर कमाना चाहता था।”
स्वदेश-प्रेम और लोगों की सेवा करने के मज़बूत इरादे ने नजीब को विदेश जाने से रोक लिया। नजीब ने सिर्फ मुनाफा कमाने के मकसद ने अपनी ट्रेवल एजेंसी नहीं चलायी, बल्कि उनका मकसद ज़रूरतमंद लोगों की हर मुमकिन मदद करना भी था। नजीब का स्वभाव शुरू से ही मिलनसार था। वे बचपन से ही मृदु-भाषी हैं। पूरे इत्मीनान से लोगों की तकलीफों को सुनने और उन्हें सुलझाने की कोशिश करने की खूबी उनमें समाई हुई है। इन्हीं खूबियों की वजह से दूर-दूर से लोग मदद के लिए नजीब के दफ्तर आने लगे। जब नजीब ने अच्छी-खासी रकम कमा ली तब उन्होंने त्रिवेंद्रम में भी अपना दफ्तर खोल लिया और अपना सारा ध्यान कारोबार पर ही लगा दिया। कुछ ही दिनों में नजीब की ख्याति और लोकप्रियता दूर-दूर तक फ़ैल गयी। केरल के अलग-अलग हिस्सों के लोग नजीब के दफ्तर पहुँचने लगे। नजीब ने दफ्तर में दूसरे कर्मचारी भी रख लिए थे लेकिन वे खुद लोगों से बातचीत करते और उनकी परेशानी/ज़रुरत पूरे करने की हर मुमकिन कोशिश करते। त्रिवेंद्रम में दफ्तर शुरू करने के बाद नजीब ने दिन दुगुनी-रात चौगुनी तरक्की की। और, जब हाथ में मोटी रकम आने लगी तब नजीब ने अपना एक बड़ा शौक पूरा करने की सोची। शौक/ सपना था एक साहित्यिक पत्रिका शुरू करने का। पत्रकारिता और साहित्य-सेवा का शौक़ पूरा करने के लिए उन्होंने एक पत्रिका भी शुरू की, लेकिन 'बोधी'के पाँच इशू ही निकाल पाये।'बोधी' पत्रिका की केरल-भर में खूब चर्चा हुई। उसका डिज़ाइन बहुत अच्छा था। पत्रिका के लिए उस ज़माने से बड़े-बड़े साहित्यकारों और आलोचकों ने अपनी रचनाएँ भेजी थीं। जिस किसी ने 'बोधी' पत्रिका को पढ़ा, उसने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। 'बोधी' की वजह से नजीब का एक बड़ा शौक तो पूरा हुआ, लेकिन इस पर 5 सप्ताह में 50 हज़ार का नुकसान हो चुका था। अब उस पत्रिका पर अधिक खर्च करने के बजाय नजीब पर घाटे में गये रुपये को वापिस निकालने की धुन सवार हुई। उन्होंने फिर से पूरा ध्यान कारोबार पर लगाया। 'बोधी' पत्रिका की वजह से हुए घाटे से उबरने के लिए नजीब को पहले से ज्यादा समय कारोबार में लगाना पड़ा। कर्ज भी हो गया था और कर्ज चुकाने के लिए नजीब ने फिर से दिन-रात एक करने शुरू कर दिए।
कारोबार के तेज़ रफ़्तार पकड़ने की वजह से कर्ज उतर गया। लेकिन, इसी बीच नजीब को अहसास हुआ कि कारोबार को नए मुकाम पर ले जाने के लिए इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन (आईएटीए) का सदस्य बनाना ज़रूरी है। नजीब जान गए थे कि कारोबार को नए पंख लगाने और ट्रावेल एजेंसी चलाने के लिए इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन से अनुमति लेना ज़रूरी है। लेकिन, आईएटीए से मंजूरी लेना आसान नहीं था। नजीब के सामने भी कई मुश्किलें थीं। सबसे मुश्किल भरा समय वो जद्दोजहद थी, जब वे आईएटीए एक्रिडेशन के लिए मुंबई की खाक छान रहे थे। त्रिवेंद्रम में उन्हें अपने ट्रावेल व्यापार का कार्यालय खोलने के लिए इस अनुमति की आवश्यकता थी। नजीब के मुताबिक, एक्रिडेशन के लिए आवेदन देने के एक साल में ही बिना किसी कारण उनका आवेदन रिजेक्ट कर दिया गया था। उस परेशानी के दौर के बारे में नजीब बताते हैं, ‘मैं भूल नहीं सकता वो दिन। मेरा आवेदन बिना सोचे-समझे और बिना किसी कारण के अधिकारियों ने रद्द कर दिया। जब मुझे पता चला कि मेरा आवेदन रद्द कर दिया गया है तब मुझे बहुत बड़ा झटका लगा। मेरी सारी उम्मीदें एक्रिडेशन पर टिकी थीं। मैं जब एयर इंडिया के दफ्तर से बाहर निकला तब बहुत निराश और उदास था। नरीमन पॉइंट से सांताक्रूज़ तक मैं टैक्सी में गया। मैं सांताक्रूज़ में ठहरा था और मेरे साथ मेरा एक मित्र भी टैक्सी पर सवार था। नरीमन पॉइंट से सांताक्रूज़ तक एक घंटे के सफ़र में मैंने उससे एक बात भी नहीं की, मैं बिलकुल चुप था। मेरी सभी कमाई अप्रूवल के लिए लग गयी है। समय भी काफी खर्च किया था। मैं कभी आसमान की ओर देखता तो कभी संमदर का किनारा। ना जाने मन में क्यों ये ख्याल आया कि अब भारत में कारोबार का रास्ता बंद हो गया है और मेरे पास भी गल्फ जाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। मेरी चिंता बढ़ गयी थी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मन में अजीब-अजीब ख्याल आ-जा रहे थे। सांताक्रूज़ पहुँचने के बाद मैंने त्रिवेंद्रम में अपने मित्र ई. अहमद जोकि उस समय केरल सरकार में उद्योग मंत्री थे, से बात की। मैंने उन्हें अपनी समस्या बतायी। उन्होंने कहा कि उनकी यात्रा का प्रबंध करें ताकि वे मुंबई पहुँच पाएँ। वे मुंबई आये और मुझे अपने साथ दिल्ली ले गये। वे मुझे सिविल एविएशन मिनिस्टर के पास ले गए। सिविल एविएशन मिनिस्टर ने एयर इंडिया चेयरमैन से बात की। तब रघुराज एयर इंडिया के चेयरमैन थे। मंत्री ने उन्हें समझाया कि गलती आवेदनकर्ता की नहीं, बल्कि एयर इंडिया के स्टाफ की ग़लती है। मंत्री के कहने पर रघुराज ने फाइल फिर से खुलवाई और दुबारा जांच हुई। जांच में पाया गया कि हमारी एजेंसी ने सभी नियमों का पालन किया है और सभी शर्तें भी पूरी की हैं। मुझे अनुमति प्राप्त करने के लिए 9 महीने और लगे।”
नजीब ये कहने से बिलकुल नहीं हिचकिचाए कि आईएटीए से अप्रूवल लेने की कोशिश और जद्दोजहद वाले वे दिन उनके लिए अब तक की अपनी ज़िंदगी के सबसे मुश्किल-भरे दिनों में एक हैं। नजीब ये भी स्वीकार करते हैं कि ई अहमद ने मदद न की होती तो शायद उन्हें आईएटीए से अप्रूवल नहीं मिलता और वे शायद खाड़ी के किसी देश चले जाते। नजीब के एक भाई और उनके ससुर से ई अहमद की अच्छी और पक्की दोस्ती थी, इसी वजह से वे भी ई.अहमद के दोस्त बन गए थे। (ई.अहमद आगे चलकर भारत सरकार में विदेश राज्य मंत्री भी बने। राष्ट्रपति के अभिभाषण के दौरान संसद में उन्हें दिल का दौरा पड़ा और अस्पताल में उनकी मौत हो गयी।)
नजीब ने मुश्किलों से भरे उन दिनों के बारे में बताते हुए ये भी कहा, “उस ज़माने में न मोबाइल फ़ोन था, न ई-मेल की सुविधा। न फैक्स मशीन थी, न एसटीडी बूथ थे। और तो और, न ही इतने विमान जितने की आज हैं। उन दिनों मुंबई और त्रिवेंद्रम के बीच सिर्फ एक विमान उड़ता था और वो भी छोटा था। वो टेलीप्रिंटर, टेलीग्राम और टेलेक्स का ज़माना था। मुंबई में बैठे किसी इंसान से अगर त्रिवेंद्रम से बात करनी होती थी तो लाइटनिंग कॉल बुक करनी पड़ती थी। बुक करने के बाद कम से कम आधे घंटे बाद किसी से बात हो पाती थी। आईएटीए से अप्रूवल के लिए मुझे बहुत मशक्कत करनी पड़ी। मैंने जितना कमाया था सारा अप्रूवल लेने में लगा दिया था और वही वजह थी कि जब मेरा एप्लीकेशन रिजेक्ट कर दिया गया तब मुझे बहुत बड़ा सदमा लगा।”
नजीब जोर देकर कहते हैं कि एयर इंडिया की कुछ कर्मचारियों की गलती की वजह से पहले उनके एप्लीकेशन को रिजेक्ट कर दिया गया था। अक्रेडटैशन के नियम अचानक बदल दिए गए थे, जबकि जो पुराने नियम थे उनका पालन उन्होंने किया था। नए नियमों के मुताबिक नजीब की कंपनी के कर्मचारियों की क्वालिफिकेशन यानी योग्यता नहीं थी। लेकिन जब मंत्री के आदेश पर नजीब की फाइल दुबारा खोली गयी और नए सिरे से योग्यता की पड़ताल की गयी तब नजीब की कंपनी हर नियम पर खरी उतारी।
बड़ी मेहनत, मशक्कत के बाद जब अप्रूवल मिला गया तब नजीब के कारोबार ने ऊंची उड़ान भरी। ये उड़ान इतनी ऊंची थी कि कोई दूसरा उनके करीब भी नहीं पहुँच सकता था। अगर नजीब की कंपनी के शुरूआती मील के पत्थरों पर नज़र डालें तो पता चलेगा कि एयर ट्रेवल इंटरप्राइजेज की शुरूआत 1976 में हुई थी।1979 में नजीब ने अक्रेडटैशन की अर्जी दी थी और उन्हें 1981 में अप्रूवल मिला। सबसे बड़ी बात ये रही कि 4 साल में दक्षिण भारत के नंबर 1 एजेंट बन गये। इस बाद नजीब ने पर्यटन और यात्रा – इन दोनों क्षेत्रों में बड़ी-बड़ी और नायब कामयाबियां हासिल कीं। पर्यटन को उद्योग का दर्जा दिलाने में भी नजीब की महत्वपूर्ण भूमिका रही और नजीब जैसे उद्यमियों की संघर्ष की वजह से ही भारत सरकार ने 1986 में पर्यटन को उद्योग का दर्ज़ा दे दिया।
पर्यटन और यात्रा के क्षेत्र में कामयाबी का परचम लहराने के बाद नजीब ने हेल्थ-केयर, हॉस्पिटैलिटी, इन्फ्रा स्ट्रक्चर, हाउसिंग, कंस्ट्रक्शन, बिल्डिंग, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी, इवेंट मैनेजमेंट, कंसल्टेंसी, मार्केटिंग, डिस्ट्रीब्यूशन, ऐड्वर्टाइज़्मन्ट जैसे कई क्षेत्रों में कदम रखा और अपनी कामयाबी की कहानी में नए-नए अध्याय जोड़ते हुए उसे और भी शानदार और बेजोड़ बनाया। नजीब ने वैसे तो कई क्षेत्रों में जमकर कारोबार कर खूब धन-दौलत और शोहरत कमाई है लेकिन वे अब भी टूरिज्म और ट्रेवल के क्षेत्र में अपने योगदान और अपनी सेवाओं के लिए लोकप्रिय और प्रसिद्ध हैं। नजीब टूरिज्म और ट्रेवल के क्षेत्र में पहली पीढ़ी के उद्यमी हैं और उनका एयर ट्रेवल एंट्रेप्रिसेस एक मायने में अपने ज़माने का स्टार्ट-अप था। कॉफ़ी हाउस में चाय पर चर्चा के दौरान मिले आईडिया से उद्यमी बने नजीब की जीवन में कई ऐसी घटनाएं हुईं जिन्होंने उनके मन में लोगों की सेवा करने की भावना को लगातार मज़बूत किया। रोज़गार के लिए अरब जाने वालों के जीवन को नजीब ने बहुत करीब से देखा है। नजीब ने बताया कि अपनी पहली ट्रेवल एजेंसी के शुरूआती दिनों में ही उन्हें अलग-अलग लोगों से तरह-तरह की दर्द-भरी कहानियाँ सुनने को मिलती थीं। नजीब के मुताबिक तीन तरह की घटनाओं से उन्हें बहुत दुःख होता था।
पहले किस्म की घटना : कई सारे लोग गल्फ चले जाते थे। लेकिन, उनका पासपोर्ट स्पोंसर अपने पास रख लेते थे। मांगने पर भी स्पोंसर पासपोर्ट नहीं देते थे। कई बार ऐसा होता था कि केरल में घर में किसी की मौत हो जाती थी लेकिन फिर भी स्पोंसर से पासपोर्ट न मिलने की वजह से व्यक्ति संकट की स्थिति में भी अपने घर, अपने हमवतन वापस नहीं आ सकता था। स्पोंसर के हाथों पासपोर्ट फंसा होने की वजह से हजारों लोगों की ज़िंदगी गुलामी की ज़िंदगी थी। गल्फ चले जाने के बाद मलयाली लोगों से उनकी आज़ादी छिन जाती थी और वे एक मायने में स्पोंसर से गुलाम बन जाते थे। हमवतन में घर-परिवार में ख़ुशी का मौका हो या फिर मातम का माहौल, गल्फ में रहने वाले लोग अपनी मर्जी से स्वदेश आ भी नहीं सकते थे।
दूसरे किस्म की घटनाएं : कई मलयाली लोगों गल्फ में दिन-रात मेहनत कर खूब धन-दौलत कमाते थे और सारी कमाई अपने परिवारवालों के पास केरल भेज देते थे। लेकिन, वो केरल में परिवारवाले उस धन-दौलत को ऐशो-आराम में उड़ा देते थे। परिवारवाले इस बात की परवाह भी नहीं करते थे कि जो शख्स गल्फ गया है वो परिवार से दूर है, दिन-रात मेहनत कर रहा है, खून-पसीना बहा रहा है और सब कुछ त्याग कर अपनी सारी कमाई स्वदेश भेज रहा है ताकि जब वो लौटे तो उसकी ज़िंदगी आसान हो। सालों साल गल्फ में काम करने के बाद जब शख्स स्वदेश लौटता है और ये देखता है कि उसकी मेहनत की कमाई को उसके परिवारवालों ने ऐशोआराम में उड़ा दिया है तब उसे ऐसा लगता है कि उसके अपनों ने ही उसका क़त्ल कर दिया है।
तीसरे किस्म की घटनाएं : गल्फ में सालोंसाल कमाने के बाद जब कोई शख्स वापस केरल लौटा है तब कई बदमाश लोगों की नज़र उस शख्स की मोटी रकम पर पड़ती है। यही बदमाश लोग, जो कि अक्सर करीबी रिश्तेदार या फिर दोस्त होते हैं वे गल्फ से लौटे शख्स को बहला-पुसलाकर उसे कोई कारोबार शुरू करने के लिए उकसाते हैं। इन्हीं लोगों के बहलावे में आकर शख्स अपनी कमाई बिना सोचे-समझे किसी न किसी उद्योग में लगा देता है और उसे घाटा हो जाता है। गल्फ में मेहनत कर कमाई रकम कुछ ही महीनों में हाथ से निकल जाती है। कई लोगों ने अलग-अलग व्यापार में भी निवेश किया, लेकिन स्थानीय परिस्थितियाँ उनके अनुरूप नहीं थी, इसलिए हज़ारों-लाखों रुपये डूब गये। यह हालत एक या दो व्यक्ति की नहीं बल्कि कई लोगों की सामान्य समस्या थी। कई लोगों के संबंध टूट गये। पत्नी छूट गयी, पति छूट गये।
नजीब ने अपने जीवन में इस तरह की कई सारी घटनाएं देखी हैं। यही वजह है कि वे लोगों को हमेशा सतर्क करते रहते हैं। गरीब और परेशानहाल लोगों की मदद में हमेशा आगे भी रहते हैं। नजीब ने ये भी बताया कि जब उन्होंने ट्रेवल एजेंसी शुरू की थी उन दिनों खाड़ी के देश ज्यादा विकसित नहीं थे। वहां सुविधाओं की कमी थी। 70 के दशक में विकास ने जब गति पकड़ी तब इमारतें बननी शुरू हुई थीं। उन दिनों कंपनियों को मजदूरों की ही ज्यादा ज़रुरत थी। जो मजदूर वहां गए उन्हें कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा। मलयालियों को मौसम की मार हमेशा खानी पड़ती थी, वहां हमेशा गर्मी ज्यादा होती थी और उन दिनों एयर कंडीशनर बहुत ही ज्यादा महंगे थे। भवन-निर्माण में उपयोग में लाये जाने वाले उपकरण भी आज जितने अच्छे नहीं थे। बिजली और पानी का भी संकट था। अरब जाने वाले लोगों से वहां की तकलीफें सुनकर नजीब का मन पसीज जाता था। नजीब जान गए थे कि गल्फ में धन-दौलत तो है लेकिन ज़िंदगी आसान भी नहीं है। नजीब कहते हैं, “70 के दशक में काफी लोग यहाँ से गल्फ गये, काफी भुगता, फिर अपनी जिंदगी को बनाया। लोगों की दर्द-भरी कहानियाँ सुनकर मुझे बहुत दुःख होता और मुझे दूसरे देश न जाने का अपना फैसला सही लगता। मुझे लगता दूसरे देश में जाकर दूसरे दर्जे का नागरिक बनने से अच्छा है अपने देश में पूरी आज़ादी से और ज़िम्मेदार नागरिक बनकर जियो। अपने देश में अपने लोगों से जो प्यार और सम्मान मिलता है वो और कहीं नहीं मिल सकता।”
नजीब अरब नहीं गए और भारत में रहकर ही अरबों रूपए कमाए। करोड़ों रुपयों की धन-दौलत का मालिक होने के बावजूद नजीब में न कोई गुरूर है न कोई रौब। उनका जीवन अब भी सादगी से भरा है। अल्लाह में उनका अटूट विश्वास है। खुदा को वे दुनिया की सबसे बड़ी ताकत मानते हैं। वे कहते हैं, “ खुदा हमेशा मेरे साथ रहता है। उसने मेरी बहुत मदद की है। खुदा ने मुझे जीवन में कई चुनौतियां भी दीं, मुझे तकलीफें भी हुईं, लेकिन खुदा ने ही हमेशा मुझे इन चुनौतियों से लड़ने की ताकत भी दी। मैं हमेशा खुदा से दुआ करता हूँ कि वो मुझे लोगों की सेवा करने की ताकत देता रहे।
एक सवाल के जवाब में नजीब के कहा, “सेवा-भावना की वजह से मैं हमेशा कामयाब रहा। मैं मानता हूँ कि हर इंसान को हमेशा दूसरे लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। मैंने हमेशा हर किसी के साथ अच्छा व्यवहार किया है। और, मैं हमेशा दूसरों की बातों को बहुत ध्यान से सुनता हूँ। मेरी यही कोशिश होती है कि मैं दूसरे इंसान की मदद करने हर मुमकिन कोशिश करूँ। और जब भी मैं किसी की मदद करता हूँ तो ये उम्मीद नहीं करता कि वो इंसान भी मेरी मदद करेगा। मदद करते हुए उलटे मदद की उम्मीद करना गलत है। मदद करते हुए मदद की उम्मीद करने से निराशा भी मिल सकती है। आप लोगों की मदद करते जाइए बस, आपको भी मदद मिलेगी, लेकिन मदद के बदले मदद की उम्मीद कभी नहीं की जानी चाहिए। वैसे भी ये कुदरत का नियम है – मदद करने वाले इंसान को मदद मिलती ही है।” दूसरों की मदद करो, लेकिन दूसरों से मदद की उम्मीद मत रखो, तभी कुछ मिलेगा, के सिद्धांत पर अमल करने वाले नजीब को इस बात पर कभी दुख नहीं हुआ कि कई लोगों ने उनकी मदद नहीं की, क्योंकि उन्होंने किसी से मदद की उम्मीद ही नहीं की थी। वे कहते ये भी हैं, “‘खुदा मेरी मदद करता रहा। कई मुश्किलों के दौर से गुज़रा,लेकिन कहीं न कहीं से मदद मिल ही जाती है। और मैं मुसीबत से बाहर निकल आता।”
नजीब से जब उनकी कामयाबी के राज़ के बारे में सवाल किये गए तब उन्होंने कहा, “जब से मैं आशावादी हुआ हूँ, तब से मैं कामयाब होता चला गया।” नजीब ने ये बताने में ज़रा-सा भी संकोच नहीं किया कि कॉलेज के दिनों में वे निराशावादी थे। नजीब ने बताया,“कॉलेज के दिनों में मैं काफी निराशावादी था, उसी निराशा से प्रेरित होकर ही मैं कहानियाँ और कविताएँ लिखता था, लेकिन जब बिज़नेस में आया तो सारी निराशाएँ जाती रहीं। बिजनेस की दुनिया में कदम रखते ही मैं आशावादी बन गया। एक ही ज़ज़्बा रहता था बस, उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ा। उम्मीद हमेशा बड़ी मज़बूती के साथ मन में रहती। मन यही कहता कि जहाँ चाह है, वहाँ राह निकल ही आती है।मुश्किल समय में भी मैंने उम्मीद नहीं खोयी।” लोगों को सलाह देते हुए नजीब कहते हैं, “हर किसी को कभी भी उम्मीद को नहीं खोना चाहिए। उम्मीद है तो ज़िंदगी हैं।” नजीब के मुताबिक, सफलता के लिए कोई शार्टकट नहीं है। हो सकता है करोड़ों में एकाध को कोई लॉटरी लग जाए, लेकिन ऐसा कुछ सब के जीवन होने का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। सफलता के लिए कड़ी मेहनत के अलावा कोई विकल्प नहीं है। कड़ी मेहनत से ही सारी बाधाओं का सामना किया जा सकता है।
नजीब से हमारी ख़ास मुलाकात त्रिवेंद्रम के पालेम स्थित उनके दफ्तर में हुई थी। दफ्तर के कांफ्रेंस हाल में स्मृति चिन्हों, ट्राफियों एवं पुरस्कारों से भरे रैक बताते हैं कि नजीब ने सफलताओं से भरी एक लंबी ज़िंदगी जी है। नजीब की व्यावसायिक ज़िंदगी 1976 में उस समय शुरू हुई थी, जब उन्होंने होटल में दोस्तों के साथ होने वाले खर्च को शेयर करने के लिए एक ट्रावेल एजेंसी का ऑफिस खोल लिया था, फिर उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। लेकिन, नजीब की सबसे बड़ी खूबी ये है कि वे एक उद्यमी और उद्योगपति के रूप में जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही लोकप्रिय वे एक समाज-सेवी के रूप में भी हैं। नजीब को करीब से जानने वाले लोग बताते हैं कि नजीब ने अपना समय दो हिस्सों में बाँट लिया है। अपना 50 फीसदी समय वे कारोबार में लगाते हैं और 50 फीसदी समय समाज-सेवा में। इसी बाबत पूछे गए एक सवाल के जवाब में नजीब ने कहा, “मैंने ट्रेवल एजेंसी का कारोबार ही लोगों की सेवा के मकसद से शुरू किया था। वो दिन आज जैसे नहीं थे जहाँ हर कोई अपना टिकट खुद इन्टरनेट के ज़रिये बुक कर सकता है। उन दिनों मुंबई के सेंट्रल रिजर्वेशन ऑफिस से टिकट बुक होते थे। टिकट कन्फर्म होने में एक हफ्ता भी लग जाता था। टिकट कन्फर्म करवाने में लोगों के दिल की धड़कने तेज़ हो जाती थीं। लोग हाथ पकड़कर रोते थे और कहते थे – किसी भी सूरातोहाल मेरा टिकट कन्फर्म करवा दो। लोग हमें बताते थे कि गल्फ पहुँचने के लिए डेडलाइन दी गयी है और अगर वे निर्धारित समय के भीतर गल्फ नहीं पहुंचे तो उनकी नौकरी किसी और को दे दी जाएगी। लोगों की मदद करने के मकसद से मैं और मेरे साथ दिन-रात काम किया करते थे। लोगों को हमारी ईमानदारी और मेहनत पर भरोसा था। हालत ऐसी हो गयी थी कि केरल भर में लोग कहने लगे थे कि अगर गल्फ की टिकट कन्फर्म करवानी है है तो नजीब हैं न। लेकिन, मैं ही जानता था कि टिकट कन्फर्म करवाने में कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी। मैंने ज़िंदगी में जो भी कारोबार किया है उसका मकसद सिर्फ धन-दौलत कमाना कभी नहीं रहा। लोगों की सेवा करने के मकसद से ही कारोबार किया है और करता रहूंगा।”
नजीब केरल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज यानी ‘किम्स’ की स्थापना और उसके ज़रिये लाखों लोगों का वाजिब शुल्क पर इलाज को भी अपनी बड़ी कामयाबी मानते हैं। वे कहते हैं, “मन में सेवा-भाव था इसी लिए 40 साल की उम्र में ही लोगों की मदद के लिए मैंने एक अस्पताल खोलने का फैसला लिया। उस समय भी ये काम आसान नहीं था लेकिन मेरा इरादा पक्का था। मैंने लोगों को सही इलाज के लिए परेशान होते देखा था। कई लोग ऐसे भी देखे थे जो रुपयों की किल्लत की वजह से अपने परिजनों का इलाज नहीं करवा पा रहे थे। मैंने फैसला किया था कि अस्पताल के ज़रिये मैं आम आदमी को भी उन्नत स्तरीय चिकित्सा-सुविधा मुहैया करवाऊँगा।” बड़ी महत्वपूर्ण बात ये भी है कि नजीब का बस एक ध्येय था - अपने देश में रहकर अपना कारोबार करना और अपने देश के लोगों की हर मुमकिन मदद करना। नजीब ने इसे साबित कर दिखाया। ग्रेट इंडिया टूर कंपनी, ग्रेट इंडिया कार एँड कोच रेंटर्स, ग्रेट इंडिया एविएशन सर्विस जैसी कंपनियों के नाम बताते हैं कि नजीब को अपने ही देश में विकास का जुनून किस हद तक है।
नजीब इस बात के लिए भी दुनिया में मशहूर हैं क्योंकि उन्होंने केरल को एक बहुत बड़े पर्यटन-स्थल के रूप में देश और दुनिया के सामने लाने में बहुत बड़ी और ख़ास भूमिका अदा की है।केरल प्रदेश और भारत देश ही नहीं बल्कि दुनिया-भर में पर्यटन के क्षेत्र में उनका नाम बड़े सम्मान से साथ लिया जाता है।नजीब पर्यटन उद्योग की बारीकियों से भी खूब वाकिफ हैं, विशेषकर केरल आने वाले विदेशी पर्यटकों को किस बात की तलाश रहती है, वे इसका बखूबी अंदाज़ा रखते हैं। वे कहते हैं कि वे यहाँ लोग पांचसितारा होटलों में आराम करने नहीं आते, बल्कि यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य, यहाँ की ताज़ा आबो हवा, दिल और दिमाग़ को सकून पहुँचाने वाली संस्कृति और अनोखे स्वाद वाले व्यंजनों से लुत्फअंदोज़ होने के लिए यहाँ आते हैं। बड़ी बात है कि 20 हज़ार करोड़ वाले इस कारोबार में केरल में 12 लाख लोग रोज़गार से जुड़े हैं। नजीब केरल में पर्यटन के क्षेत्र में सार्वजनिक निजी भागीदारी(पीपीपी)वाली परियोजनाओं में अपनी खास उपस्थिति रखते हैं, बल्कि हेलिकैप्टर टुरिज्म तथा टुरिज्म एजुकेशन में उन्होंने खास योगदान किया है।
हमसे बातचीत के दौरान नजीब ने अपने स्कूल के दिनों के एक क्लास टीचर को भी बहुत याद किया। नजीब ने बताया कि स्कूल में एक क्लास टीचर थे, जोकि वामपंथी थे। इस क्लास टीचर से नजीब बहुत प्रभावित थे। ये टीचर बच्चों को नयी-नयी बातें बताते थे। एक बात थी जो इस क्लास टीचर ने कही थी और वो बात हमेशा के लिए नजीब में मन-मस्तिष्क में गाँठ बाँध कर बैठ गयी। इस क्लास टीचर ने कहा था – हर मुद्दे पर हर इंसान की एक राय होनी चाहिए, राय चाहे गलत हो सही, हर मुद्दे पर राय ज़रूर होनी चाहिए।
नजीब के मुताबिक जीवन में ऐसी ही कई छोटी-बड़ी घटनाएं थीं जिनसे उन्होंने कामयाबी के मंत्र सीखे थे। ऐसी ही एक घटना थी जब वो ग्रेजुएशन के बाद अपनी डिग्री का सर्टिफिकेट लेकर अपने पिता के पास पहुंचे थे। जैसे ही डिग्री का सर्टिफिकेट नजीब को मिला था वे उसे लेकर सीधे अपने पिता के पास पहुंचे थे। नजीब को लगा था कि पिता बहुत खुश होंगे और शाबाशी देंगे, लेकिन उम्मीद के उलट पिता ने शाबाशी के बदले सीख दी। पिता ने कहा – इस सर्टिफिकेट का उस समय तक कोई मतलब नहीं है जब तक तुम्हें इस सर्टिफिकेट की वजह से रोटी नहीं मिलती। नजीब बताते हैं, “पिता अंदर ही अंदर बहुत खुश थे लेकिन वे मुझे एक सच से सामना करवाना चाहते थे। पिता से मिले इसी सबक की वजह से ही शायद मैंने 21 साल की उम्र से ही कमाना शुरू कर दिया था।”
आज ई.एम.नजीब एयर ट्रेवल इंटरप्राइजेज ग्रूप ऑफ कंपनीज़ के चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक तो हैं ही वे 20 से ज्यादा कंपनियों के मालिक हैं। दिल्ली मुंबई, चेन्नई, बैंगलूर एवं हैदराबाद सहित 22 शहरों में उनके कार्यालय हैं। विदेश में अबुधाबी के अलावा भी कई बड़े शहरों में भी वे अपनी उपस्थिति रखते हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों की जिम्मेदारियां संभाल रहे नजीब की एक बहुत ही बड़ी और रोचक खूबी ये भी है कि वे अपना मोबाइल फ़ोन कभी बंद नहीं रखते और अपना मोबाइल फ़ोन हमेशा अपने पास ही रखते है। इसकी भी एक ख़ास वजह है। नजीब को लगता है कि लोग उनसे मदद की उम्मीद करते हैं और मदद के लिए ही उन्हें फोन भी करते हैं। अगर किसी वजह से मैं फोन नहीं उठाता हूँ तो वे मदद से वंचित रह सकते हैं इससे उन्हें भारी नुकसान भी हो सकता है। नजीब ये बात भी अच्छी तरह से जानते हैं कि जिन लोगों के पास उनका नंबर है वे टाइमपास या फिर बिना वजह फ़ोन नहीं करेंगे।
नजीब के दो बेटे हैं और अब दोनों कारोबार और समाज-सेवा में उनका हाथ बंटा रहे हैं। नजीब अपनी कामयाबी का काफी श्रेय अपनी पत्नी को भी देते हैं। नजीब के मुताबिक, उनकी पत्नी ने घर-परिवार की कई बड़ी जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर ले लिया था और इसी वजह से वे अपना सारा ध्यान कारोबार पर दे पाए।