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गरीबों के दिल को टूटने से बचाने की कोशिश में जुटे बड़े दिलवाले डॉक्टर का नाम है राकेश यादव

देश और दुनिया में दिल के डॉक्टर तो बहुत हैं लेकिन इनमें कुछ ही ऐसे हैं जिनका दिल बहुत बड़ा है और उसमें गरीबों के लिए बेशुमार जगह है। राकेश यादव एक ऐसे ही डॉक्टर हैं जिनका दिल गरीबों के लिए धड़कता है। वे गरीबों के दुःख-दर्द को अपना दुःख-दर्द मानते हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हृदय-रोग विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत राकेश यादव एक बड़े लक्ष्य और संकल्प को लेकर अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं। वे अपने जीतेजी दिल की बीमारियों के इलाज को इतना सस्ता बना देना चाहते हैं कि गरीबों में सबसे गरीब इंसान भी आसानी से अपने खराब दिल का इलाज करवा सके।राकेश डॉक्टरी पेशे से बेइंतेहा मोहब्बत करते हैं। उनके दिल को ये बात भी बहुत ठेंस पहुंचाती है कि डॉक्टरी पेशे का भी व्यवसायीकरण हो गया है। अपने दिलोदिमाग को समाज-सेवा के प्रति संकल्पनिष्ट बनाये रखने में उन्हें अपने माता-पिता से मिले अच्छे संस्कार ही सहायक सिद्ध हो रहे हैं। पिछड़ी जाति के एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे राकेश को समाज-सेवा, दया-गुण और परोपकार की भावना अपने पिता से विरासत में मिली। त्याग करने की ताकत अपनी माँ से मिली। अलग-अलग चरणों में मिले अलग-अलग गुरूओं से डॉक्टरी जीवन के असली मकसद को जानने-समझने का मौका मिला।अपनी काबिलियत और अपने अनुभव को गरीबों और ज़रूरतमंद लोगों की सेवा में समर्पित कर चुके प्रोफेसर राकेश यादव की कहानी में कई ऐसे पहलु हैं जोकि बेहद रोचक और रोमांचक है। ये कहानी एक ऐसी कहानी है जो लोगों को कामयाब बनने के लिए ज़रूरी कई सारी अच्छी और बड़ी बातें बताती है, इंसानी ज़िंदगी के असली मकसद को समझती है। राकेश यादव की कहानी से सीखने को बहुत कुछ है।

गरीबों के दिल को टूटने से बचाने की कोशिश में जुटे बड़े दिलवाले डॉक्टर का नाम है राकेश यादव

Tuesday March 07, 2017 , 23 min Read

कामयाबी के एक अनुपम कहानी के नायक राकेश यादव का जन्म उत्तरप्रदेश के फैजाबाद शहर में हुआ। उनका परिवार मध्यमवर्गीय था और पिता इंडियन एक्सप्लोसिव्स लिमिटेड में नौकरी किया करते थे। नौकरी की वजह से पिता का अलग-अलग जगह तबादला भी हुआ करता था। माँ काफी पढ़ी-लिखी थीं, लेकिन घर-परिवार और बच्चों की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए उन्होंने नौकरी नहीं की। अगर माँ नौकरी करना चाहती थीं तो उन्हें किसी स्कूल या कॉलेज में भी आसानी से शिक्षक की नौकरी मिल सकती थी क्योंकि वे बीएड और एमएड पास थीं। लेकिन,माँ को लगा कि नौकरी करने से वे अपने बच्चों की परवरिश ठीक तरह से नहीं कर पाएंगी।

राकेश अपने माता-पिता की पहली संतान थे। राकेश के जन्म के बाद तीन लड़कियां हुईं। राकेश के मामा उदय प्रताप सिंह हिंदी के विख्यात कवि, साहित्यकार और राजनेता हैं। उदय प्रताप सिंह समाजवादी पार्टी के संस्थापक ‘नेताजी’ मुलायम सिंह यादव के ‘गुरु’ हैं। राकेश के नाना डॉ. हरिहर सिंह चौधरी अपने ज़माने में होमियोपैथी के मशहूर डॉक्टर थे। दूर-दूर से लोग अपनी बीमारियों का इलाज करवाने के लिए उनके पास शिकोहाबाद आया करते थे।

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बचपन में पिता की पोस्टिंग बिहार के शहर गया में होने की वजह से राकेश की प्राथमिक स्कूली शिक्षा वहीं हुई। नर्सरी से लेकर सातवीं तक की पढ़ाई राकेश ने गया में ही की। इसके बाद जब पिता का तबादला उत्तरप्रदेश के गोंडा शहर में हुआ तब सारा परिवार यहीं आ गया। राकेश ने आठवीं से बारहवीं की पढ़ाई गोंडा में की। 

राकेश शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई में काफी तेज़ थे। जब वे पहली क्लास में थे तभी उनके माता-पिता को अहसास हो गया था कि उनका लाड़ला बेटा आगे चलकर बड़ा आदमी बनेगा। राकेश हुनरमंद और तेज़ तो थे ही, बचपन से ही उनमें कई सारी खूबियाँ भी समायी हुई थीं। उनकी एक आदात ऐसी है जोकि बचपन से अब तक जस की तस बरकरार है। ये आदत है बातें करने की। स्कूल के दिनों में भी वे काफी बातूनी थे। अपने सहपाठियों और दोस्तों के साथ बातें करना उन्हें बहुत पसंद था। राकेश ने बताया, “मुझे अब भी याद है जब मुझे पहली, दूसरी और तीसरी क्लास में रिपोर्ट कार्ड मिलता था तब टीचर उसमें ये लिखती थीं कि बच्चा पढ़ाई में तेज़ हैं, लेकिन चंचल बहुत है और बातें बहुत करता है।” 

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राकेश वाकई चंचल स्वभाव के थे और बच्चों से जुड़ी हर छोटी-बड़ी गतिविधि में उनकी भागीदारी होती थी। इसके बावजूद वे पढ़ाई-लिखाई के लिए समय निकाल ही लेते थे। हाई स्कूल तक आते-आते उनकी ये आदत बन गयी थी कि हरहाल में हर दिन 4 घंटे पढ़ाई करना। किसी वजह से किसी दिन पढ़ाई के लिए चार घंटे नहीं निकाल पाने की स्थिति में वे अगले दिन पढ़ाई में ज्यादा समय लगाकर पिछले दिन की भरपाई कर लिया करते थे। ऐसा भी नहीं था कि राकेश को सिर्फ पढ़ाई-लिखाई में ही दिलचस्पी थी। खेल-कूद में भी वे किसी से पीछे नहीं थे। क्रिकेट, हॉकी, टेबल टेनिस जैसे कई खेलों के वे माहिर खिलाड़ी थे। दिमाग की ताकत को परखने वाले शतरंज के खेल में भी बेहतरीन चाले चलकर प्रतिद्वंद्वी को चित करने में राकेश को बहुत मज़ा आता था। स्कूल में होने वाली प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना और अपने शानदार प्रदर्शन से पुरस्कार जीतना उनकी आदत बन गयी थी। उनके बोलने का अंदाज़ भी काफी निराला था। अपनी बातों से वे सभी का मन जीत लेते थे। वाद-विवाद प्रतियोगिता में उनकी जीत पक्की मानी जाती थी। जो भी बात कहते पूरे विश्वास के साथ और अपने दमदार अंदाज़ में कहते।

शुरू से ही राकेश की दिलचस्पी गणित और विज्ञान में काफी रही। अंकों का खेल उन्हें बेहद पसंद था। दूसरे बच्चों के लिए जहाँ गणित सबसे कठिन विषय था वहीं जोड़-घटाव, गुणा-भाग का काम राकेश को बहुत ही पसंद आता। गणित के सूत्रों से गज़ब का प्रेम था राकेश को और वे छोटी-उम्र में ही गणित के सवालों का हल निकालने में माहिर हो गए थे। विज्ञान की बातें भी उन्हें बहुत लुभाती थीं।

राकेश से जुड़ी एक और बड़ी रोचक बात ये थी कि वे रात के समय पढ़ाई करते थे। घर पर जब सब बत्तियां बुझ जातीं और सब सो जाते तब राकेश अपनी किताबें निकालते और होमवर्क पूरा करते थे। स्कूल से आने के बाद सारा समय खेल-कूदने में ही बीतता, लेकिन रात में पढ़ाई-लिखाई मन लगाकर की जाती। राकेश के मुताबिक, “जब मैं पढ़ने बैठता था तब मेरा सारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई पर ही होता था। रात में पढ़ने की सबसे बड़ी वजह ये थी कि उस समय कोई शोर-शराबा नहीं होता और हर तरफ शांति होती थी। और वैसे भी, अगर मैं पढ़ने बैठ जाऊं और मेरे पास आकर कोई ढ़ोल भी बजाने लगे तब भी मैं डिस्टर्ब होने वाला नहीं था, मेरा कंसंट्रेशन उतना तगड़ा हुआ करता था।”

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एकाग्रचित होकर पढ़ने की इसी खूबी की वजह से राकेश को दसवीं की परीक्षा में स्टेट रैंक हासिल हुई। बिना ट्यूशन लिए पढ़ने के बावजूद पूरे उत्तरप्रदेश में उनका रैंक नवां था। बोर्ड की परीक्षा में शानदार प्रदर्शन से उत्साहित माता-पिता के मन में अपने बेटे को डॉक्टर बनाने की इच्छा प्रबल हो गयी। गणित सबसे पसंदीदा विषय होने के बावजूद राकेश ने अपने माता-पिता के सपने को पूरा करने के मकसद से डॉक्टर बनने की तैयारी शुरू की। साल 1983 में दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद इंटर में राकेश ने बायोलॉजी को अपना मुख्य विषय बनाया।इंटर की परीक्षा और प्री-मेडिकल टेस्ट में मिले शानदार नंबरों के आधार पर राकेश ने मेडिकल कॉलेज में दाखिले की योग्यता हासिल कर ली। चूँकि साल 1985 में पिता की पोस्टिंग गोरखपुर में थी, राकेश ने एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए बाबा राघवदास गोरखपुर मेडिकल कॉलेज को चुना। एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान भी राकेश ने अपनी प्रतिभा, काबिलियत और एकाग्रता की अद्भुत शक्ति से सभी को प्रभावित किया। तेज़ दिमाग, ऊपर से कड़ी मेहनत .. इन दोनों के सम्मिश्रण का नतीजा ये रहा कि एमबीबीएस के हर एग्जाम में राकेश अव्वल रहे। दिलचस्प बात ये भी है कि परीक्षाओं में तो राकेश हमेशा अव्वल रहते थे बावजूद इसके कि वे सारी क्लास में आखिरी कतार में बैठते थे। एम्स परिसर में हुई एक बेहद ख़ास मुलाकात के दौरान राकेश ने एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान की सबसे यादगार घटनाओं को भी हमारे साथ साझा किया। 

एक दिन गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में एनाटोमी की क्लास चल रही थी। एनाटोमी यानी शरीर-रचना-विज्ञान विभाग के मुखिया डॉक्टरी विद्यार्थियों को बीमारियों के इलाज में शरीर के चीर-फाड़ वाले विषय के बारे में समझा रहे थे। एनाटोमी के प्रोफेसर बहुत ही सख्त मिजाज के इंसान थे, हर कोई उनसे डरता था। पढ़ाते समय अचानक प्रोफेसर की नज़र राकेश पर गयी। राकेश की आँखें बंद थीं और प्रोफेसर को लगा कि राकेश क्लास में सो रहे हैं। प्रोफेसर को गुस्सा आया और उन्होंने राकेश को जमकर फटकार लगाई। गुस्से में लाल-पीला हुए प्रोफेसर ने राकेश को क्लास से बाहर चले जाने का फरमान सुनाया। लेकिन, राकेश ने कहा कि वे क्लास में सो नहीं थे बल्कि आँखें बंद कर लेक्चर सुन रहे थे। प्रोफेसर को राकेश की बातों पर यकीन नहीं हुआ। अपनी बात साबित करने के लिए राकेश ने प्रोफेसर को वो सब सुनाया जोकि पिछले दस मिनटों के दौरान प्रोफेसर ने पढ़ाया था। प्रोफेसर को हैरान करने वाली बात तो ये रही कि प्रोफेसर ने जैसा कहा था ठीक वैसे ही, यानी अक्षर-अक्षर और वाक्य-वाक्य बिलकुल वैसे ही सुनाया था। ये घटना भी ये साबित करती है कि राकेश की दिमागी ताकत और स्मरण-शक्ति वाकई गज़ब की थी।

मेडिकल कॉलेज के दिनों में भी राकेश सिर्फ पढ़ाई-लिखाई में ही नहीं बल्कि हर काम में आगे रहते थे। खेल का मैदान हो या शतरंज की बिसात, अपना दमखम दिखाने में वे कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ते थे। वाद-विवाद हो या फिर निबंध-लेखन, प्रतियोगिता चाहे कोई भी क्यों न हो, राकेश का पुरस्कार पाना तय था। यही वजह थी कि जब कॉलेज का वार्षिकोत्सव होता था और विजेताओं को पुरस्कार बांटे जाते थे तब राकेश की झोली में इतने पुरस्कार आ जाते थे कि उन्हें अपने हाथों में पकड़ कर रखना भी उनके बस की बात नहीं होती थी। राकेश ने सभी का दिल जीत लिया था।

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मेडिकल कॉलेज में एक बार वार्षिकोत्सव के आयोजन में राकेश ने अपनी नेतृत्व-श्रमता और रचनात्मकता/कलात्मकता से सभी को मंत्र-मुग्ध कर दिया। हुआ यूँ था कि एक बार मेडिकल कॉलेज में फंड्स की कमी पड़ गयी। वार्षिकोत्सव के आयोजन के लिए दी जाने वाले राशि में भी भारी कटौती की गयी। कॉलेज में खेल विभाग के प्रभारी का सिर चकरा गया। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि छोटी रकम में वार्षिकोत्सव का आयोजन कैसे किये जाय। स्पोर्ट्स मास्टर ने अपनी उलझन राकेश को बताई और राकेश ने फट-से चुनौती स्वीकार कर ली। राकेश ने अपने दिमाग की पूरी ताकत वार्षिकोत्सव के सफल आयोजन में झोंक दी। सूझ-बूझ का परिचय देते हुए राकेश ने अपने साथियों को इक्कट्ठा किया और काम पर लग गए। चूँकि हाथ में रुपये काफी कम थे, कम कीमत वाली वस्तुओं से सारी तैयारी करनी थी।जब कम कीमत वाली वस्तुओं के बारे में सोचना शुरू किया तब राकेश का दिमाग कुल्हड़ों पर जाकर अटका। कुल्हड़ों से राकेश के दिमाग की बत्ती जली और उन्हें नया आइडिया मिला। राकेश ने उस साल कुल्हड़ों से ही कॉलेज का सारा डेकोरेशन कर डाला। कुल्हड़ों से कॉलेज के भवनों और स्टेज की शानदार सजावट को देखकर सभी राकेश के मुरीद हो गए। इस घटना से एक और बड़ी बात साबित हो गयी और वो ये थी कि राकेश आपदा प्रबंधन में भी माहिर हैं।

शानदार नंबरों से एमबीबीएस की परीक्षा पास करने के बाद एमडी के कोर्स के लिए राकेश ने आगरा के सरोजिनी नायुडू मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया। शुरू में तो उनका मन हड्डियों के इलाज में लग गया था लेकिन माता-पिता की सलाह पर उन्होंने जनरल मेडिसिन को अपना मुख्य विषय बनाया। एमडी की पढ़ाई के दौरान आगरा मेडिकल कॉलेज की एक घटना ने राकेश के दिलोदिमाग पर कुछ इस तरह का प्रभाव छोड़ा कि लोगों की सेवा करना और मौत का सम्मान करना उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया। राकेश ने बताया कि आगरा मेडिकल कॉलेज में डीके हजरा नाम के एक प्रोफेसर हुआ करते थे। प्रोफेसर हजरा डिपार्टमेंट हेड थे। राकेश को उनके साथ मरीजों की जांच करने के लिए राउंड्स पर जाने का मौका मिलता था। एक बार राउंड्स के दौरान एक मरीज की मौत हो गयी। प्रोफेसर को जैसे ही मालूम हुआ कि उस मरीज ने दम तोड़ दिया है तब वे उसके बेड के पास गए। प्रोफेसर ने लाश की खुली आँखें बंद की। हाथ-पाँव में जो पट्टियां बंधी थीं उन्हें बड़ी सावधानी से खुलवाया। इंट्रावीनस फ्लुइड्स के लिए जो सुई शरीर में लगी थी उसे निकलवाया। इसके बाद प्रोफेसर ने राकेश से कहा – “जो लोग मौत की इज्जत नहीं कर सकते वे ज़िंदगी की इज्ज़त कभी नहीं कर सकते।” प्रोफेसर की ये बात राकेश में मन-मश्तिष्क में गाँठ बांधकर बैठ गयी।

राकेश के ‘दिल का डॉक्टर’ बनने का कारण भी माता-पिता ही थे। माता-पिता चाहते थे कि राकेश दिल का डॉक्टर ही बनें। उन दिनों दिल का डॉक्टर होने का मतलब था समाज में ऊंचा मुकाम होना। वैसे तो हर किस्म के डॉक्टर की समाज में कद्र होती थी लेकिन दिल के डॉक्टरों को बहुत बड़ा माना जाता था। माता-पिता की ख्वाइश पूरा करने के मकसद से राकेश ने एम्स में डीएम कोर्स में दाखिले की तैयारी शुरू की। हर परीक्षा की तरह ही इस बार भी राकेश की तैयारी काफी तगड़ी थी। उन्हें पहली ही कोशिश में देश के सबसे बड़े चिकित्सा-संस्थान यानी भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में कार्डियोलॉजी में डीएम कोर्स में सीट मिल गयी। गौर करने वाली बात ये भी है कि उन दिनों भारतीय आयुर्विज्ञान में डीएम कार्डियोलॉजी की दो ही सीटें हुआ करती थी, लेकिन राकेश के नंबर इतने अच्छे थे कि उन्होंने बाकी सारे उम्मीदवारों को काफी पीछे छोड़ दिया। मौखिक परीक्षा में भी राकेश के ही नंबर सबसे ज्यादा थे। वाक-कला में निपुण राकेश ने ज्ञान-विज्ञान की अपनी बातों से परीक्षकों का दिल जीत कर दिल का डॉक्टर बनने का अपना रास्ता साफ़ कर किया।

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कार्डियोलॉजी में डीएम की स्पेशलाइज्ड डिग्री लेने के बाद राकेश भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स में ही फैकल्टी का हिस्सा बन गए। बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर अपने शिक्षक जीवन की शुरूआत हुई। एम्स में काम करते हुए राकेश ने कई सारे मरीजों का इलाज किया है।पिछले कई सालों से वे हर दिन दिल के मरीजों की तकलीफों को दूर करने की हरमुमकिन कोशिश करते आ रहे हैं। अब तक के अपने डॉक्टरी जीवन में उन्होंने अपनी दवाइयों और इलाज के तौर-तरीके के कई लोगों की जान बचाई है। कई जटिल मामलों को सुलझाया है।

एक सवाल के जवाब में राकेश ने कहा, “हर मरीज मेरे लिए एक नई चुनौती लेकर आता है। मैं अपनी ओर से हर मुमकिन कोशिश करता हूँ कि मरीज को मेरे इलाज के बाद कोई शिकायत न रहे। मैं अपने आप को पहले मरीज के परिजनों की स्थिति में लाकर उनके दुःख-दर्द को महसूस करने की कोशिश करता हूँ। मैं लोगों के दुःख-दर्द को अच्छी तरह से समझता भी हूँ, और यही वजह कि मैं हर मरीज के इलाज में अपनी पूरी शक्ति लगा देता हूँ। मैं जानता हूँ कि मेरी छोटी-सी लापरवाही किसी पिता से उसका बेटा छीन सकती है तो किसी बेटे से उसका बाप। इलाज में थोड़ी-सी देरी भी किसी की जान ले सकती है। मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ कि मेरा हर फैसला सीधे जीवन और मौत से जुड़ा होता है। एक गलत फैसले से ज़िंदगी मौत में तब्दील हो सकती है।”

राकेश ये बात कबूल करने में ज़रा-सी भी हिचक नहीं महसूस करते है कि अपने परिचित लोगों का इलाज करना ही उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है। वे कहते हैं, “परिचित लोगों से एक अलग-किस्म का भावनात्मक लगाव होता है। परिचित होने की वजह से उनका मुझपर भरोसा भी काफी ज्यादा होता है। इलाज ठीक नहीं हुआ तब परिचित के सामने असहज महसूस करना भी स्वाभाविक होता है। यही वजह है कि परिचित लोगों का इलाज करते वक्त मेरे दिल की धड़कनें भी तेज़ हो जाती हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मैं अपने को लेकर बहुत ही ज्यादा फिक्रमंद हो जाता हूँ, हाँ दिल की धड़कन तेज़ ज़रूर हो जाती है।”

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परिचित लोगों के इलाज के समय मनोदशा कैसी होती है इस बात को हमें बताने के लिए राकेश ने एक घटना सुनायी। राकेश के एक बेहद ख़ास दोस्त के उम्रदराज पिता को सीने में दर्द की शिकायत हो रही थी। दोस्त के पिता को लगा कि एसिडिटी की वजह से सीने में जलन होने लगी है। एसिडिटी की दवाइयां लेने के बाद भी जब दोस्त के पिता की शिकायत दूर नहीं तब उन्होंने राकेश को फ़ोन लगाया। राकेश ने जैसे ही सीने में दर्द की बात सुनी उन्होंने अपने दोस्त से उनके पिता को जितना जल्दी हो सके उतनी जल्दी अस्पताल में उनके पास ले आने को कहा। राकेश जानते थे कि सीने में दर्द का मतलब दिल की कोई गंभीर बीमारी भी हो सकती थी। राकेश कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। उनका दोस्त जब अपने पिता को लेकर एम्स पहुंचा तब राकेश ने उनकी ईसीजी करवाई। ईसीजी की रिपोर्ट से साफ़ हो गया था कि दोस्त के पिता को दिल का ज़बरदस्त दौरा पड़ा है। राकेश ने तुरंत दोस्त के पिता को कैथ लैब ले जाने की तैयारी शुरू की। इतने में ही उनके दोस्त के पिता बेहोश होकर वहीं गिर पड़े। राकेश ने तुरंत उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाया और कैथ लैब की ओर दौड़े। राकेश के सही समय पर सही फैसले और सही इलाज की वजह से उनके दोस्त के पिता की जान बच गयी। उस घटना की यादें ताज़ा करते हुए राकेश ने बताया कि अगर मेरे दोस्त के पिता को कुछ हो जाता तो मुझे बहुत ही बुरा लगता। उनके ठीक हो जाने के बाद मेरे दोस्त और उनके पिता – दोनों ने मुझसे से कहा था कि उन्होंने मुझे इतना घबराया हुआ कभी भी नहीं देखा था। वैसे तो मैं कभी भी न घबराता हूँ न फिक्रमंद होता हूँ लेकिन तब बात परिचित लोगों के इलाज की आती है तो मामला कुछ अलग ज़रूर हो जाता है और मेरे दिल की धड़कनें सामान्य से कुछ ज्यादा तेज़ धड़कती हैं।

हज़ारों खराब दिल को ठीक कर चुके राकेश ने दिल के बारे में एक बहुत ही रोचक बात बताई। वे कहते हैं, “दिल बहुत ही अजीब चीज़ है। ये कैसे काम करता हैं ये तो हम जान पाए हैं लेकिन ये बीमार कैसे हो जाता है इसकी सही वजह अब भी पता नहीं चल पायी है। दिल के खराब होने के कारणों का पता लगाने के लिए दुनिया-भर में काफी काम हो रहा है और मुझे उम्मीद है कि कामयाबी भी जल्द ही मिल जाएगी। लेकिन, अभी कोई भी ये दावे के साथ नहीं कह सकता कि दिल के खराब के होने के सही कारण क्या हैं। मैंने खुद ऐसे कई लोग देखे हैं जोकि न सिगरेट पीते हैं, न तम्बाकू का सेवन करते हैं, ये लोग हर दिन कसरत करते हैं, मांस नहीं खाते, इनका खान-पान और रहन-सहन भी बिलकुल ठीक है लेकिन ऐसे लोगों को भी दिल की बीमारी हो रही है। कई लोगों को तो छोटी-सी उम्र में ही दिल की बीमारी हो रही है। ये कहावत वाकई सही है – दिल को कोई समझ नहीं पाया है। वैसे तो अक्सर ये कहावत लड़कियों के दिल के संदर्भ में कही जाती है लेकिन मर्दों के दिल को समझना भी मुश्किल काम है।”

दिल और दिमाग के रिश्ते की बाबत पूछे गए सवालों के जवाब में इस ह्रदय-रोग विशेषज्ञ ने कहा, “दिल की सारी धड़कनें दिमाग से ही संचालित होती हैं। लेकिन, दिल की बड़ी बात ये है कि वो अगर 30 सेकंड के लिए भी धड़कना बंद कर दे तो इंसान का दिमाग भी काम करना बंद कर देता है और इंसान मर जाता है। शरीर के दूसरे अंग आराम कर सकते हैं लेकिन दिल कभी नहीं रुकता। किसी भी इंसान के जिंदा रहने के लिए दिल का धड़कना ज़रूरी होता है। दिल और दिमाग के कनेक्शन की बात हो और मुझसे ये पूछा जाय कि दिल की सुननी चाहिए या दिमाग की माननी चाहिए तो मैं वही पुरानी कहावत कहूँगा – दिल की सुनेगे तो खुश रहोगे और दिमाग की सुनोगे तो तरक्की करोगे।” राकेश ने आगे कहा, “मैं तो अपने दिल की ही सुनता हूँ। मुझे जो अच्छा लगता है वही करता हूँ। अगर मेरे आसपास के लोग मुझसे खुश हैं तो मैं खुश हूँ। मेरी हमेशा यही कोशिश रहती है कि जो भी मेरे सामने बैठा है वो खुश रहे, मुस्कुराता रहे। लोग जब मेरे काम से खुश होते हैं तब मेरे दिल को सबसे ज्यादा खुशी मिलती है।”

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राकेश को दूसरे लोगों का दुःख-दर्द देखकर बहुत परेशानी होती है। उनसे दूसरों का दर्द सहा नहीं जाता। वे लोगों का दर्द दूर करने के लिए अपनी ओर से हर मुमकिन कोशिश भी करते हैं। वे कहते हैं, “किसी भी इन्सान को मैं अपने सामने दर्द झेलते हुए नहीं देख सकता। वैसे तो मैं हर आदमी का दर्द दूर नहीं कर सकता लेकिन मेरा दिल चाहता है कि मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों का दुःख दूर करूँ।”

राकेश का दिल एक और बात को लेकर बहुत दुखी है। राकेश को इस बात की पीड़ा है कि भारत में आज भी दिल की बीमारियों का इलाज काफी महंगा है। आम आदमी के लिए दिल की बीमारी का इलाज करवाना आसान नहीं है। बीमार दिल के इलाज में लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं। इलाज करवाने की स्थिति में न होने की वजह से कई लोगों का दिल लगातार कमज़ोर होता जाता है और एक दिल इतना खराब हो जाता है कि वो धड़कना ही बंद कर देता है।देश में गरीबी की वजह से कई सारे लोग अपने खराब दिल की बीमारी का इलाज ही नहीं करवा पा रहे हैं।

राकेश की ये कोशिश है कि भारत में दिल की बीमारियों का इलाज सस्ता हो ताकि आम आदमी और गरीब इंसान भी इलाज पर होने वाला खर्च का भार बर्दाश्त कर सके। राकेश ने इस बात पर खुशी ज़ाहिर की कि भारत में केंद्र सरकार ने दिल की बीमारी के इलाज में होने वाले खर्च को कम करवाने की दिशा में बड़े कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। दिल की बीमारी में बंद रक्त धमनियों को खोलने के लिए उपयोग में लाये जाने वाले स्टेंट की कीमत को कम करने की पहल इसी दिशा में उठाया गया एक बड़ा कदम है। सरकार ने स्टेंट के अलावा दिल की बीमारियों के इलाज से जुड़े अन्य उपकरणों की कीमत कम करने की कोशिश शुरू कर लोगों में एक नयी उम्मीद जगाई है। राकेश कहते हैं,“मेरे जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य यही है कि भारत में दिल की बीमारियों का इलाज इतना सस्ता हो जाए कि गरीब से गरीब इंसान भी अपने खराब दिल का इलाज आसानी से करा पाए। दिल की बीमारी के इलाज में लोगों के दिल का टूटना बंद हो – यही मेरा सपना है।”

भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में डॉक्टरी विद्यार्थियों को दिल की बीमारियों और उनके इलाज के बारे में बता/सिखा रहे दिल के इस बड़े जानकार ने बताया, “भारत में दिल के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। हर तीन में से एक भारतीय उच्च रक्तचाप का शिकार है। आठ में एक से भारतीय मधुमेह से परेशान है। दिल की बीमारियों के मामले में भारत में स्थिति बहुत ही खतरनाक है और एक ज्वालामुखी का रूप ले चुकी है।”

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इस मशहूर डॉक्टर का दिल इस बात को लेकर भी दुखी होता है कि कुछ लोगों ने डॉक्टरी पेशे को कारोबार बना लिया है। राकेश कहते हैं,“ पता नहीं क्यों कुछ लोगों के इस प्रोफेशन को बिज़नेस बना लिया है। इन लोगों को इस प्रोफेशन में व्यापार दिखता है न कि प्यार। ये एक ऐसा प्रोफेशन जहाँ डॉक्टर को लोगों की मदद करने, उसका दुःख-दर्द दूर करने का मौका मिलता है। लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आता कि क्यों कुछ लोग इस मौके का गलत फायदा उठाने की कोशिश में लगे रहते हैं। मैं हर डॉक्टर से कहता हूँ – इस पेशे को व्यापार मत बनाओ, इससे प्यार करो को लोगों का इलाज करते हुए उनका प्यार पाओ।” अपनी इसी बात को हर डॉक्टर के सामने बलपूरक रखने के मकसद से राकेश अपने मामा उदय प्रताप सिंह का एक शे’र सुनाते हैं -

ख्वाइशों का सिलसिला बेशक बढ़ा ले जाएगा , सोचता हूँ इंसान दुनिया से क्या ले जाएगा

तुम किसी की खामियों का क्यों लगाते हो हिसाब ,वो अपनी करनी का हिसाब खुदबखुद ले जाएगा

चिकित्सा-क्षेत्र में चिकित्सक, शिक्षक, वैज्ञानिक और शोधकर्ता के रूप में राकेश की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें कई प्रतिष्टित पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान यानी ‘यशभारती’ पुरस्कार भी उन्हें मिल चुका है। चिकित्सा-क्षेत्र में अमूल्य योगदान के दिए जाने वाले सबसे बड़े पुरस्कार – डॉ. बी.सी.रॉय अवार्ड से भी राकेश को नवाज़ा जा चुका है। दिल की बीमारियों और उनके इलाज को लेकर किये गए शोध के आधार पर राकेश द्वारा लिखे गए शोध-पत्र और लेख देश और दुनिया की लब्ध-प्रतिष्टित पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। दिल की बीमारियों से बचने के उपाय लोगों को अलग-अलग प्रचार-प्रसार माध्यमों से बताना उनकी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन गया है।

राकेश अपनी नायाब कामयाबियों का सारा श्रेय अपने माता-पिता और गुरुओं को देते हैं। वे कहते हैं, “माता-पिता ने शुरू से ही मुझे अच्छे संस्कार दिए। घर में शुरू से ही ऐसा माहौल मिला जिससे ये प्रेरणा मिलती थी कि ज़िंदगी में कुछ बड़ा करना है, कुछ अच्छा करना है। मेरे पिता ने मुझे एक बहुत बड़ी बात सिखाई थी। वे मुझसे कहते थे – बड़ा इंसान ज़रूर बनो, लेकिन बड़ा इंसान बनने से पहले एक अच्छा इंसान बनो। मुझे खुशी है मेरे माता-पिता के दिए संस्कारों की वजह से मैं एक अच्छा इंसान बन पाया।मैं अपने आप को इस वजह से भी बहुत खुशकिस्मत मानता हूँ क्योंकि मुझे हर समय अच्छे गुरु मिले। आज मैं जो कुछ भी हूँ अपने बड़ों के आशीर्वाद की वजह से ही हूँ।”

गरीबों और ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने मज़बूत ज़ज्बा भी राकेश को अपने पिता से विरासत में मिला है। राकेश ने अपने बचपन से ही देखा है कि उनके पिता बड़े ही परोपकारी और दयालु हैं। जो कोई मदद की गुहार लगाते हुए उनके पास आता था वो कभी निराश नहीं लौटता था। राकेश कहते हैं, “मैंने अब तक कई सारे लोगों के दिल का परीक्षण किया है लेकिन मैंने अपने पिता जैसा मज़बूत और बड़ा दिल किसी का नहीं देखा। एक बार मेरे पिता की नौकरी चली गयी थी, तब उन्होंने परिवार के किसी भी सदस्य तो इस बात का आभास भी नहीं होने दिया कि वे बड़ी मुश्किल से घर-परिवार चला रहे हैं। हमारे चाचा की भी ज़िम्मेदारी पिता पर ही थी, लेकिन उन्होंने हँसते हुए सभी की ज़रूरतों को पूरा किया।” माँ को राकेश त्याग की मूर्ति बताते हैं और कहते हैं कि माँ जैसा अच्छा और प्यारा दिल दुनिया में किसी का नहीं होता।

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राकेश से जुड़ी एक और बड़ी दिलचस्प बात ये है कि वे अपने साहित्यकार और राजनेता मामा उदय प्रताप सिंह से भी बहुत प्रभावित हैं। उदय प्रताप सिंह की गिनती आधुनिक भारत में हिंदी के श्रेष्ठ और लोकप्रिय साहित्यकारों में होती हैं।उदय प्रताप सिंह पिछले कई सालों से अपने काव्य-पाठ से कवि सम्मेलनों की शान बढ़ाते आ रहे हैं। अपने मामा के प्रभाव की वजह से राकेश ने भी पांच साल की छोटी से उम्र से ही कवि सम्मेलनों में जाना शुरू कर दिया था। रात-रात भर वे देश के बड़े-बड़े कवियों को सुना करते थे। देश के मूर्धन्य कवियों की रचनाओं का असर राकेश के बाल-मन पर कुछ इस तरह से पड़ा कि उन्होंने भी कविताएँ लिखनी शुरू कर दी थीं, लेकिन पढ़ाई-लिखाई की वजह से उनका साहित्य-सृजन रुक गया। अब भी राकेश को जब कभी मौका मिलता है वे खुद को साहित्य से जोड़ लेते हैं। उन्हें फ़िल्मी गीत-संगीत भी बहुत पसंद है।

दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर

यादों को तेरी मैं दुल्हन बनाकर

रखूँगा मैं दिल के पास, मत हो मेरी जाँ उदास

‘ब्रह्मचारी’ फिल्म का ये जीत उनका सबसे पसंदीदा गीत भी है। इसी गीत के ज़रिये वे लोगों को अपने दिल को चुस्त-दुरुस्त और स्वस्थ रखने के उपाय भी समझाते हैं। राकेश कहते हैं, “अगर पांच बातों को दिल के झरोखे में बिठाकर रखा जाय और उसी तरह से काम किया जाय तब ही दिल को बीमारियों से बचाया जा सकता है। पहला ज़रूरी काम है – हर दिन नियमित रूप से व्यायाम करना। दूसरा – खान-पान में अहतियात बरतना और सेहतमंद भोजन ही करना। घर के बाहर का बना खाना खाने से बचना। तीसरा – नमक का कम से कम इस्तेमाल करना। चौथा – तम्बाकू और शराब का सेवन न करना और पांचवा – ज़िंदगी से तनाव को दूर रखना और खुश रहना।

राकेश की कामयाबी की एक और बड़ी वजह ये भी है कि वे समय का सही इस्तेमाल करते हैं। वे समय को व्यर्थ गंवाने को सबसे बड़ा अपराध मानते हैं। वे कहते हैं, “बचपन में भी मैंने हर बार समय का सही इस्तेमाल किया। पढ़ाई के समय पढ़ाई की और खेलने के समय खूब खेला। एक भी मिनट मैंने वेस्ट नहीं।” राकेश की बड़ी खासियतों में एक बड़ी खासियत ये भी है कि वे जीवन के इस मुकाम पर भी समय को सबसे बलवान मानते हैं और समय का सदुपयोग को तवज्जो देते हैं।महत्वपूर्ण बात ये भी है इंसानी जीवन को लेकर एक सिद्धांत है जिसपर राकेश शुरू से चलते आ रहे हैं और इस सिद्धांत वो वे एक वाक्य में कहते है –Life is not a problem to be solved, It is a mystery to be lived. 

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