Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी

स्मृति-शेष सुभद्रा कुमारी चौहान...

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी

Wednesday August 16, 2017 , 4 min Read

सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम देश के शीर्ष महाकवियों मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन की यशस्वी परम्परा में आदर के साथ लिया जाता है। वह बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक प्रसिद्ध कवयित्रियों में एक रही हैं।

image


सुभद्रा कुमारी चौहान ने लगभग 88 कविताएं और 46 कहानियां लिखीं। उनकी काव्य प्रतिभा बचपन से ही मानस पटल पर उतरने लगी थी। नौ वर्ष की आयु में ही उनकी पहली कविता प्रयाग से प्रकाशित हिंदी पत्रिका 'मर्यादा' में 'सुभद्रा कुँवरि' के नाम से प्रकाशित हुई।


आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ, स्वागत करती हूँ तेरा,

तुझे देखकर आज हो रहा, दूना प्रमुदित मन मेरा...

सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम देश के शीर्ष महाकवियों मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन की यशस्वी परम्परा में आदर के साथ लिया जाता है। वह बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक प्रसिद्ध कवयित्रियों में एक रही हैं। उन्होंने लगभग 88 कविताएं और 46 कहानियां लिखीं। उनका जन्म 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के पास निहालपुर गाँव में हुआ था। एक सड़क दुर्घटना में उनका 15 फरवरी, 1948 को आकस्मिक देहावसान हो गया था। उनकी काव्य प्रतिभा बचपन से ही मानस पटल पर उतरने लगी थी। नौ वर्ष की आयु में ही उनकी पहली कविता प्रयाग से प्रकाशित हिंदी पत्रिका 'मर्यादा' में 'सुभद्रा कुँवरि' के नाम से प्रकाशित हुई। ऐसा कहा जाता है कि यह कविता ‘नीम’ के पेड़ पर लिखी गई थी। 

वह इतनी कुशाग्र बुद्धि थीं कि पढ़ाई में तो प्रथम आती ही थीं, स्कूल के काम की कविताएँ घर से आते-जाते रास्ते में ही लिख लेती थीं। एक गौरव की बात ये भी है कि सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा बचपन की सहेलियाँ थीं। सुभद्रा कुमारी की पढ़ाई नौवीं कक्षा के बाद छूट गई। बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी... स्निग्ध-अल्हड़ बचपन पर जितनी सुन्दर कविताएँ उन्होंने लिखीं, कम ही पढ़ने को मिलती हैं-

आ जा बचपन, एक बार फिर दे दो अपनी निर्मल शान्ति

व्याकुल व्यथा मिटाने वाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति।

उनके स्वर बचपन से ही विद्रोही थे। होश संभालने के साथ ही वह अंधविश्वास, जात-पांत से लड़ने लगी थीं। भारतीय संस्कृति में उनकी अगाध आस्था थी-

मेरा मंदिर, मेरी मस्जिद, काबा-काशी यह मेरी

पूजा-पाठ, ध्यान जप-तप है घट-घट वासी यह मेरी।

कृष्णचंद्र की क्रीड़ाओं को, अपने आँगन में देखो।

कौशल्या के मातृमोद को, अपने ही मन में लेखो।

प्रभु ईसा की क्षमाशीलता, नबी मुहम्मद का विश्वास

जीव दया जिन पर गौतम की, आओ देखो इसके पास।

'राष्ट्रभाषा' हिंदी से उनका गहरा सरोकार था, इसकी अभिव्यक्ति उनकी 'मातृ मन्दिर में' शीर्षक रचना में इस प्रकार हुई है-

'उस हिन्दू जन की गरविनी हिन्दी प्यारी हिन्दी का।

प्यारे भारतवर्ष कृष्ण की उस प्यारी कालिन्दी का।

है उसका ही समारोह यह उसका ही उत्सव प्यारा।

मैं आश्चर्य भरी आंखों से देख रही हूँ यह सारा।

जिस प्रकार कंगाल बालिका अपनी माँ धनहीता को।

टुकड़ों की मोहताज़ आज तक दुखिनी की उस दीना को।"

वह आजीवन राष्ट्रीय चेतना की सजग कवयित्री रहीं। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को अपनी कहानियों में भी व्यक्त किया। भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंझलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम के फूल, किस्मत, मछुए की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, ग्रामीणा आदि उनकी कहानियों की भाषा सरल बोलचाल की है। अधिकांश कहानियां नारी विमर्श पर केंद्रित हैं। 'उन्मादिनी' शीर्षक से उनका दूसरा कथा संग्रह 1934 में छपा। इस में उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्त, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज, चढ़ा दिमाग, वेश्या की लड़की कुल नौ कहानियां हैं। इन सब कहानियों का मुख्य स्वर पारिवारिक सामाजिक परिदृश्य ही है। 'सीधे साधे चित्र' उनका तीसरा और अंतिम कथा संकलन रहा। वह रचनाकार होने के साथ ही स्वाधीनता संग्राम सेनानी भी रहीं। स्वातंत्र्य युद्ध करते हुए देश पर मर मिटीं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर लिखीं उनकी लोकप्रिय पंक्तियां भारतीय जन-गण का कंठहार बनीं-

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,

लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,

नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,

बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

पढ़ें: नहीं आता हर किसी को किताबों से प्यार करना