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विषपायी नीलकंठ की तरह आज भी ख़ामोश मन्नू भंडारी!

विषपायी नीलकंठ की तरह आज भी ख़ामोश मन्नू भंडारी!

Tuesday October 30, 2018 , 8 min Read

कहानीकार मन्नू भंडारी के बचपन का नाम महेंद्र कुमारी है। उनका जीवन एक ऐसी पटकथा जैसा है, जो आज भी उनको जानने वालो को एक अजीब सी तड़प से भर देता है। ख्यात लेखक राजेंद्र यादव के साथ उनके दांपत्य जीवन को एक ऐसा अंधेरा ओर-छोर मिला, जिसको लेकर अब तक न जाने कितने पन्ने रंगे जा चुके हैं।

मन्नू भंडारी (फोटो साभार-शब्दांकन)

मन्नू भंडारी (फोटो साभार-शब्दांकन)


राजेन्द्र जी को किसी भी भयानक या खतरनाक आदमी या बीमारी की खबर देना उनको दुखी करने या डराने जैसा नहीं होता था, रोमांचित होते तो लगता खुश हो रहे हैं। 

महिला क्रिकेट टीम की खिलाड़ियों पर कमेंट के कारण ट्विटर पर ट्रोल हो रहीं मशहूर लेखिका शोभा डे हों या कभी विभूतिनारायण राय की अभद्र टिप्पणी झेलने वाली यशस्वी मैत्रेयी पुष्पा, अपनी किताब 'आलो आंधारि' से पूरी दुनिया में शोहत बटोर चुकी श्रमिक लेखिका बेबी हालदार हों अथवा गुमनामी का दंश झेलती रहीं आदिवासी लेखिका एलिस एक्का, सबके अपने-अपने दुख-दर्द हैं लेकिन ख्यात लेखिका मन्नू भंडारी का जीवन एक ऐसी पटकथा जैसा है, जो आज भी उनको जानने वालो को एक अजीब सी तड़प से भर देता है। कहानीकार मन्नू भंडारी के बचपन का नाम महेंद्र कुमारी है। लेखन के लिए उन्होंने अपना नाम मन्नू रख लिया। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत में मिला।

पिता सुख सम्पत राय भी जाने माने लेखक रहे। वह वर्षों तक दिल्ली के मीरांडा हाउस में अध्यापिका और विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.) में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्षा भी रहीं। 'धर्मयुग' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित उपन्यास 'आपका बंटी' से उन्हें सर्वाधिक लोकप्रियता मिली लेकिन लेखक राजेंद्र यादव के साथ उनके दांपत्य जीवन को एक ऐसा अंधेरा ओर-छोर मिला, जिसको लेकर अब तक न जाने कितने पन्ने रंगे जा चुके हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि समकलीन हिंदी कहानी के विकास में राजेंद्र यादव एक अपरिहार्य और महत्त्पूर्ण नाम है। हिंदी कहानी की रूढ़ रूपात्मकता को तोड़ते हुए नई कहानी के क्षेत्र में जितने और जैसे कथा-प्रयोग उन्होंने किये हैं, उतने किसी और ने नहीं। उनकी कहानियां स्वाधीनता के बाद से विघटित हो रहे मानव-मूल्यों, स्त्री-पुरुष संबंधों, बदलती हुई सामाजिक और नैतिक परिस्थितियों तथा पैदा हो रही एक नयी विचार दृष्टि को रेखांकित करती हैं। वह हिन्दी के सुपरिचित लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक होने के साथ ही हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय संपादक भी रहे लेकिन अपनी जीवन संगिनी मन्नू भंडारी को 'जनविरोधी राजनीतिक मानसिकता' का घोषित करते हुए अपने सरोकारों का एक बरख्स भी खड़ा करते रहे, और मन्नू भंडारी हर बार विषपायी नीलकंठ की तरह ख़ामोश रहीं। राजेंद्र जी के व्यक्तित्व में यही 'द्वैध' रहा कि वह ‘मन्नू’ को संबंधों में अपने जैसे प्रयोगों के लिए माफ़ नहीं कर सके।

संजीव चन्दन लिखते हैं - 'वे जिद्द की हद तक अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता बनाये रखने के लिए जहां हिंदी साहित्य में स्त्री और दलित-विमर्श को स्थापित करते हैं, मन्नू भंडारी के मामले में निपट अहमन्य पुरुष हो जाते हैं और मैत्रयी के साथ अपनी मित्रता को दांव पर लगाकर भी लेखिकाओं को गाली देने वाले शख्स को ' क्या उसकी रोजी रोटी छीनोगी' के ओछे तर्क के साथ अपनी भूमिका तय करते हैं। उनका यह द्वैध स्त्रीवादियों के लिए एक पाठ है, पितृसत्ता की गहरी पैठ का पाठ। राजेंद्र यादव कहते हैं कि यदि उनकी ही तरह मन्नू जी ने भी संबंधों के मामले में स्वच्छंद जीवन जिया होता तो उन्होंने मन्नू को माफ़ नहीं किया होता। स्त्री-दलित मुद्दों के प्रति प्रतिबद्धता के साथ स्त्री और दलित विमर्श को हिंदी साहित्य के केंद्र में लेन वाले राजेंद्र यादव की यह स्वीकारोक्ति उनके कई प्रशंसकों को चोट पहुंचाती है।'

राजेंद्र यादव की निकटता को लेकर प्रसिद्ध लेखिका मैत्रेयी पुष्पा को भी तमाम दंश झेलने पड़े हैं। वह लिखती हैं - 'राजेन्द्र जी को किसी भी भयानक या खतरनाक आदमी या बीमारी की खबर देना उनको दुखी करने या डराने जैसा नहीं होता था, रोमांचित होते तो लगता खुश हो रहे हैं। जैसे बिना दहशतों के रास्ता क्या और बिना खतरों के जिन्दगी क्या! तब की बात करते हुए मुझे आज अर्चना वर्मा का वह लेख याद आ रहा है जिसमें उसने लिखा है कि राजेन्द्र जी का शुगर लेवल खतरनाक ढंग से बढ़ा रहा था और मैत्रेयी ने अपने यहाँ टेस्ट कराकर उसे नार्मल बता दिया। अब कोई बताए कि ऐसे दुष्प्रचार के लिए मैं क्या करूँ! पूछ ही सकती हूँ कि अगर उनके टेस्ट नार्मल थे तो डॉक्टर साहब (मेरे पति) उनको लेकर एम्स क्यों गए थे? जल्दी से जल्दी कैज्युअलिटी में दाखिल क्यों कराया था? कमरा तो बाद में मिला। ऐसी बिना सिर-पैर की बातें मेरे पास तमाम जमा हैं, उनका उल्लेख करना जरूरी नहीं।

'राजेन्द्र जी के लिवर के ऊपर फोड़ा बन गया। मामला गम्भीर था। राजेन्द्र यादव तब तक कैज्युअलिटी में ही थे कि मैं और डॉक्टर साहब अपनी गाड़ी लेकर मन्नू को लिवाने पहुँचे। हौजखास तक जाते हुए भी हम घबराए हुए थे। माना कि हम बहुत नजदीकी शुभचिन्तक थे लेकिन परिवारी या किसी तरह से संबंधी तो नहीं थे। हमारी औकात इस समय ‘निजी’ के नाम पर कुछ नहीं थी। मन्नू भंडारी लाख दर्जे अलग रहती हैं उनसे, मगर हैं तो उनकी पत्नी ही। उनका संबंध आधिकारिक है। हमने उनको नहीं बताया तो जवाबदेह हम होंगे। एकदम अपराधी घोषित कर दिए जाएँगे और बेपर की आशंकाएँ उठेंगी। ऐसे समय आपका प्रेम भले पहाड़ जैसा बना रहे मगर उसकी वकत राई भर भी नहीं होती। उफ! मन्नू दी तैयार नहीं आने के लिए। किसी तरह तैयार हुईं। हमारी जान में जान आई कि जिन्दगी भर साथ निभाने के वादे पर विवाहिता होनेवाली पत्नी ने हमारी अरज सुन ली, इन अलगाव भरे दिनों में कड़वे अनुभवों से गुजरते हुए। मुश्किल लम्हे उनके लिए भी और हमारे लिए भी। उसके बाद मन्नू दी रोज आती रहीं सबेरे के दस या ग्यारह बजे और उनके पतिव्रत की महिमा ने साहित्य का एरिया ऐसा पुण्य-पवित्र बना डाला जैसा कि पौराणिक कथा की सती शांडिनी की पति भक्ति ने।....मन्नू जी का काम राजेन्द्र यादव ने रोका, उनके लेखन में अड़ंगा लगाए, ये सब बेकार की बातें हैं।'

ऐसे ही अनुभव लेखिका गीताश्री के रहे हैं। वह लिखती हैं - 'मैं सोचती कि मन्नूजी इस मामले में वाकई खुशनसीब हैं। लेखन को सपोर्ट करने वाले पति लेखिकाओं के भाग्य में कम ही होते हैं। जिनके होते हैं, वे आसमान छू लेती हैं। मैं मन्नूजी को बता नहीं सकी ये सब। मन्नूजी हमेशा मुझे आंतरिक रुप से गंभीर लगती रहीं। राजेन्द्रजी ने कई बार फोन पर भी बातें करवाईं और मिलवाया भी, मौके पर। मैं उनसे बात करने के लिए कभी इच्छुक नहीं हुई। नमस्कार करके खिसक लेने का मन होता था। यही करती थी। एकाध बार उनके पास बैठने का मौका मिला तो मैं बहुत असहज महसूस करती रही। जाने क्यों मैं सहज नहीं रह पाई उनके सामने। आउटलुक, हिंदी के साहित्य विशेषांक का मैं संपादन कर रही थी। हिंदी साहित्य के टॉप टेन कथाकारों का चयन होना था, पाठकों के वोट से। उदय प्रकाश और मन्नू भंडारी दो नाम सबसे आगे चल रहे थे। आखिर परिणाम भी इसी तरह आया। मन्नूजी लोकप्रियता में दूसरे नंबर पर रहीं। यह वोटिंग श्रेष्ठता के आधार पर नहीं, लोकप्रियता के आधार पर हुई थी। इसके लिए मैंने और पत्रिका ने बहुत आलोचना झेली। कुछ दोस्तों ने ब्लॉग पर मेरे खिलाफ खूब जहर उगला। मैंने राजेन्द्रजी को पूरा मामला बताया। राजेन्द्रजी चाहते थे, मन्नूजी से मैं बात करूं। मैंने उन्हें तर्क दिया कि मैं काम की बात कम करूंगी, आपकी तरफ से लड़ जाऊंगी। बेहतर हो मैं उनसे दूर ही रहूं, जैसे अब तक रही। यादवजी हंसे- अबे, तुझे खा जाएगी क्या, जा मिल कर आ। कुछ नहीं कहेगी तुझे। तुझे ही जाना चाहिए। तेरे मन में जितनी भड़ांस है निकाल लेना। उस अंक के आने तक यादवजी रोज फोन करके वोटिंग ट्रेंडस के बारे में पूछते। रोज दो तीन उत्सुकताएं होतीं कि कितनी चिट्ठियां आईं, मन्नू को कितने वोट मिले, कौन आगे चल रहा है? मुझे हैरानी होती कि टॉप टेन की प्रतियोगी सूची में खुद राजेन्द्र यादव का नाम शामिल है पर उन्होंने किसी रोज ये नहीं पूछा कि मेरे लिए कितने खत आए या मुझे कितने वोट मिले?

'उनकी सारी चिंताएं मन्नूजी को लेकर थीं और वे रोज खबर रख रहे थे। ज्यादातर चिट्ठियों में मन्नूजी लोकप्रियता में अपने समकालीनों को बहुत पीछे छोड़ रही थीं। राजेन्द्रजी तो वोट में हमेशा मन्नूजी से बहुत पीछे रहे। मैं उनसे कहती — देखिए, मन्नूजी ने आपको पीछे छोड़ दिया। वे आपसे ज्यादा पॉपुलर साबित हो रही हैं। वे हंसते-कहते- मन्नू तो है ही पॉपुलर। इसमें कोई शक। मन्नू ने मुझसे अच्छी कहानियां लिखीं हैं। मैं पूछती कि आप इतने बेचैन क्यों है, रिजल्ट के लिए? जिस दिन फाइनल होगा, छपने से पहले आपको बता दूंगी पर वे नहीं माने। रोज सुबह की आदत थी फोन करना। उनकी उत्सुकता और बेचैनी चरम पर थी। यह बात मुझे हैरानी के साथ-साथ सुख से भर देती थी। अलगाव के बावजूद इतना कन्सर्न, नामुमकिन। मन होता, मन्नूजी को बताऊं कि देखिए, कितने चिंतित रहते हैं आपके लिए। अपने बारे में कभी नही पूछते, सिर्फ आपके बारे में चिंता है। संकोचवश नहीं कह पाती कि पता नहीं वे इस बात को किस तरह लें। मैं सोचती कि मन्नूजी इस मामले में वाकई खुशनसीब हैं। कुछ शब्द गुस्से में लरजने लगते कि इतने साल निभाया तो कुछ साल और निभा लेतीं। इस उम्र में अलग होने का फैसला हमें रास नहीं आया।'

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