भाई को खोने के बाद ही आया 'CAN', युवाओं को मिली मुक्ति नशीली दवाओं से...
"मेरा अतीत ही मेरी प्रेरणा है। मैं अपने अतीत को हर वक़्त अपने साथ रखता हूँ, उसे पल भर के लिए भी भूलता नहीं-और वही मुझे इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है!"
कहते हैं-नशा को जो हुआ शिकार, उजड़ा उसका घर परिवार। ऐसे में सबसे बुरा असर बच्चों का होता है। उनकी मन: स्थिति का अंदाजा लगाना मुश्किल है जो रोज़ अपने शराबी पिता की बुरी हरकतों को देखकर बड़े होते हैं, जो रोज़ अपनी मां को शराबी पिता के हाथों मार खाते देखते हैं।
जेनपू रोंगमाइ का बचपन और किशोरावस्था बहुत तकलीफ में बीते। उनके पिता शराबी थे, जिनके हाथों उनकी माँ अक्सर मार खाया करती थी। आर्थिक कठिनाइयों के चलते जेनपू को कॉलेज की पढ़ाई छोड़नी पड़ी और सबसे दुखद बात यह हुई कि नशीली दवाओं के लगातार सेवन से उनका भाई, डेविड असमय ही चल बसा।
इस बात की सराहना की जानी चाहिए कि इन परेशानियों और तकलीफ़ों का जेनपू ने हिम्मत के साथ मुक़ाबला किया और अब उन पर परेशानियों का कोई नकारात्मक असर नहीं रह गया है। जेनपू कहते हैं कि यह आसान नहीं था लेकिन उन्होंने सही रास्ता चुना। आज वे एक दृष्टिसंपन्न नेता और मार्गदर्शक की तरह उभर चुके हैं।
तीस वर्षीय जेनपू कम्युनिटी एवेन्यू नेटवर्क (CAN) के संस्थापक हैं, जो मुख्यतः युवकों द्वारा संचालित संगठन है और जो भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य नागालैंड के सबसे बड़े शहर दीमापुर में स्थित है। एचआईव्ही/एड्स (HIV/AIDS) से ग्रसित बच्चों को इस बीमारी के इलाज से संबंधित साज़ो-सामान और नैतिक सम्बल प्रदान करने के अलावा CAN और भी कई परियोजनाएँ संचालित करता है, जिनमें गरीब और सामान्य सुविधाओं से वंचित युवकों को व्यावसायिक प्रशिक्षण मुहैया कराना, समाज-सेवा के लिए विभिन्न कॉलेजों और गाँवों से स्वयंसेवकों को संगठित करना शामिल है। वर्तमान में जेनपू बाल-अधिकारों और महिला-अधिकारों के लिए काम करने वाले 'नागालैंड गठबंधन' नामक संगठन के सूचना-सचिव भी हैं।
"मेरा अतीत ही मेरी प्रेरणा है। मैं ही जानता हूँ कि मैंने कितना संघर्ष किया है। मैं जानता हूँ कि जवान भाई को खोने का दुःख क्या होता है। जिस तकलीफ और पीड़ा से मुझे गुज़रना पड़ा है, उन्हें मैं अनेक युवाओं में देख सकता हूँ, सैकड़ों युवकों की आँखों में वही दर्द, वही दुःख और वही संघर्ष। मैं अपने अतीत को हर वक़्त अपने साथ रखता हूँ, उसे पल भर के लिए भी भूलता नहीं-और वही मुझे इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है!"
जेनपू एक्यूमेन इंडिया के 2015 के लिए गठित दल के फेलो हैं। "वे मुझे हर जिज्ञासा पर सवाल पूछने के लिए प्रेरित करते हैं। यह मुझे प्रोत्साहित करता है। अब मैं नेतृत्व का वास्तविक अर्थ जान चुका हूँ," वे बताते हैं। इससे उन्हें दूसरे सहयोगी फेलोज़ की निकटता हासिल करने का मौका मिला है। "ईमानदारी की बात यह है कि उत्तर-पूर्व और भारत की मुख्यभूमि के बीच बहुत सी समस्याएँ हैं लेकिन दूसरे फेलोज़ से मुझे प्रेम और आदर प्राप्त हुआ है। यह उत्तर-पूर्व और बाकी भारत के बीच पुल की तरह काम करता है।" जेनपू कहते हैं।
कम्युनिटी एवेन्यू नेटवर्क (CAN) युवा
अपने भाई को नशीली दवाओं की बलि चढ़ता देखने के बाद उन्होंने इन दवाओं के विरुद्ध अभियान छेड़ने का निश्चय किया। “स्कूली पढ़ाई खत्म करके निकलने वाले बहुत से युवकों को मैंने इन दवाओं का सेवन करते देखा है। इसने मुझे सोचने को मजबूर किया कि कब तक हम सरकार और सामान्य जनता को दोष देते रहेंगे। कुछ ठोस कार्यवाई करने का वक्त आ गया था। इसी विचार के साथ मैंने कम्युनिटी एवेन्यू नेटवर्क (CAN) की स्थापना की।” जेनपू ने बताया।
जेनपू कहते हैं कि महज एक-दूसरे पर दोष मढ़ना हमें कहीं नहीं पहुँचा सकता। जब उन्होंने CAN की शुरुआत की थी तब उनके पास रुपयों की बेहद कमी थी लेकिन समस्या के हल की दिशा में कुछ करना भी अत्यंत आवश्यक था इसलिए उन्होंने इसकी शुरुआत में देर नहीं की और तुरंत काम शुरू कर दिया। वे बताते हैं, “मैंने लोगों को गोलबंद किया और किशोर बच्चों के साथ काम करना शुरू कर दिया, विशेष रूप से बीच मे पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों यानी ड्रॉपआउट्स के साथ। वे कुंठा और निराशा में जी रहे होते हैं और कुंठा ही नशीले पदार्थों का सेवन करने की ओर प्रवृत्त करती है। मेरा खुद का भी यही अनुभव रहा है, मैंने भी स्कूल छोड़ दिया था और जानता हूँ कि ये बच्चे किस अवसाद से गुज़र रहे होते हैं।”
वे एक और घटना के बारे में बताते हैं, जिसने उनकी आँखें खोल दीं। “सन 2011 में विश्व एड्स दिवस के दिन यहाँ बहुत बड़ा कार्यक्रम रखा गया था, जिसमें बहुत से मंत्री, नागालैंड और बाहर के कई गणमान्य लोग आए था और बहुत से स्वयंसेवी संगठनों ( गैर सरकारी संगठनों NGOs) के प्रतिनिधियों ने भी उसमें हिस्सा लिया था। वहाँ मुझे बच्चों को साथ लिए एक परेशानहाल दंपति दिखाई दिए। मैंने उनसे पूछा कि वहाँ क्यों आए हैं और उनकी हालत इतनी खराब क्यों है। उन्होंने बताया कि उन्हें HIV+ है और जब कि सरकारी अस्पतालों से उन्हें ART [Anti Reroviral Therapy] चिकित्सा उपलब्ध हो रही है, उनके पास दवाई खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं, बच्चों को पढ़ाने-लिखाने की तो बात ही छोड़ दीजिए। उनकी हालत ने मुझे हिलाकर रख दिया और मैंने लोगों को संगठित करना शुरू कर दिया। आखिर हर बच्चे को स्तरीय शिक्षा पाने का अधिकार है।”
गरीबों और HIV/AIDS से प्रभावित बच्चों की घर पर ही देखभाल
जेनपू अनाथाश्रम नहीं चला रहे हैं। इनमें ज़्यादातर बच्चों के एक ही अभिभावक हैं या फिर दोनों नहीं हैं। "अक्सर परिवारों में यह होता है कि माँ या पिता के मर जाने पर बच्चों को अनाथाश्रम भेज दिया जाता है। परिवारों की अपनी ज़िन्दगी होती है, ज़िन्दगी के अपने संघर्ष और खर्चे होते हैं इसलिए वे एक और बच्चे का लालन-पालन करने में असमर्थ होते हैं और इस तरह बच्चा अनाथाश्रम पहुँच जाता है," जेनपू बताते हैं। वे परिवार वालों से विनती करते हैं कि बच्चों को अपने पास ही रखें और जेनपू बच्चों की शिक्षा, भोजन और कुछ दूसरे खर्चों को पूरा करते हैं। उन्होंने 9 बच्चों से शुरू किया था और अब वे 25 बच्चों की परवरिश कर रहे हैं।
बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों को व्यावसायिक प्रशिक्षण
वे दीमापुर की निजी एजेंसियों से संपर्क करके पढ़ाई बीच में छोड़ देने वाले बच्चों को प्रशिक्षित करवाते हैं। वे इन युवकों की कहानियाँ बताते हैं और उन निजी संस्थाओं से उनकी मदद की गुहार लगाते हैं। "यह काम बहुत कठिन है क्योंकि कई बार वे इस विचार को ही निरस्त करते चले जाते हैं। लेकिन मैं पीछे लगा रहता हूँ और अंततः उन्हें मानना ही पड़ता है।"
चुनौतियाँ
मदद के लिए जेपनू समाज के प्रतिनिधियों से मिलते हैं। "मैं सामान्य जनता के पास जाता हूँ और इन बच्चों की कहानियाँ सुनाकर अमीर और रसूखदार लोगों से मदद की याचना करता हूँ। जब मैं 40 लोगों से मिलता हूँ तब कहीं जाकर उनमें से तीन या चार लोग मदद के लिए राज़ी होते हैं।" जेपनू बताते हैं कि वित्त-प्रबंध एक लगातार कशमकश है। जेनपू के प्रयासों का समाज खुले दिल से समर्थन नहीं करता। “मैं इसे चुनौती के रूप में लेता हूँ। यह मेरा मिशन है, मेरा सपना है कि मैं अपना लक्ष्य प्राप्त करके रहूँगा। मैं नकारात्मकता की परवाह नहीं करता,” जेनपू दृढ़ स्वर में कहते हैं।
अपने संगठन के संदर्भ में जेनपू महसूस करते हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इस समस्या के साथ जुड़ना चाहिए। “लोगों को जमीनी सच्चाई के बारे में जानना चाहिए कि समाज में क्या चल रहा है और फिर उससे निकलने का रास्ता खोजना चाहिए।” जेनपू इसी कार्यक्षेत्र में और इसी मिशन के साथ काम करने वाले ज़्यादा से ज़्यादा स्वयंसेवी संस्थानों (NGOs) के साथ सम्बद्ध होकर उनके साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। इस समय उन्हें सरकार से कोई सहायता प्राप्त नहीं हो रही है।
जेनपू समस्या के सतही समाधान की जगह उसकी जड़ तक पहुँचने में विश्वास रखते हैं। “लोग शिक्षित बेरोजगार युवकों की बात करते हैं, बेरोजगारी की समस्या की बात करते हैं लेकिन वे पढ़ाई अधूरी छोड़कर स्कूल से भाग जाने वाले युवकों की बात नहीं करते। नागालैंड एक विद्रोही प्रदेश है, यहाँ अशांति फैली हुई है। निराशा, कुंठा और साक्षरता का अभाव उन्हें असामाजिक कार्यों की ओर प्रवृत्त कर सकते हैं। हमे समझना चाहिए कि बीच में पढ़ाई छोड़ देना सोच-समझकर लिया गया निर्णय नहीं होता, यहाँ की परिस्थितियाँ उन्हें ऐसा करने को मजबूर करती हैं।”
सुनहरा सपना
जेनपू का बुनियादी लक्ष्य शिक्षा और समाज के हर वर्ग को समान अवसर उपलब्ध कराना है। “अगर हम समृद्धि की बात करते हैं तो पढ़ाई पूरी किए बिना स्कूल छोड़ने वाले बच्चों को, गरीब और शोषित बच्चों को और HIV/AIDS से ग्रसित लोगों को भी समृद्ध होने के समान अवसर मिलने चाहिए। उन्हें भी समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त होना चाहिए। समाज के सभी वर्गों की समान समृद्धि के बगैर हमारा देश खुशहाल नहीं हो सकेगा।” जेनपू युवाओं को सक्षम और समर्थ बनाना चाहते हैं, जिससे वे जीवन में प्रगति कर सकें।
क्या उनका सपना साकार हो सकता है? वे कहते हैं,
“यह बहुत आसान नहीं है। लेकिन अगर आप शुरू से असफलताओं के बारे में सोचते रहेंगे तो कोई काम नहीं हो पाएगा। मैं भरसक प्रयास कर रहा हूँ। मेरा दिल कहता है कि मेरे प्रयास अवश्य ही रंग लाएँगे और समाज में परिवर्तन आएगा। हो सकता है, उन्हें फलीभूत होता देखने के लिए मैं ज़िंदा न रहूँ लेकिन मैं खुश हूँ कि समाज के हर वर्ग का समर्थन और उनकी सक्रिय भागीदारी का लाभ मुझे मिल रहा है और आज सभी सर्वशिक्षा और समावेशीकरण की बात कर रहे हैं। गाँवों और शहरों में आज यह शब्द हर एक की ज़बान पर है और यह अच्छा लक्षण है।”
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