पति की मौत के बाद अपने दम पर पारंपरिक चावल की किस्मों का साम्राज्य खड़ा करने वाली मेनका
पति की मौत के बाद पति के सपनों को कुछ इस तरह पूरा कर रही हैं मेनका...
पिछले साल, एक दुर्घटना में थिलगराजन का निधन हो गया। हालांकि इस त्रासदी से भी मेनका ने हिम्मत नहीं हारी और अपने पति की विरासत को आगे बढ़ाने का लक्ष्य तय किया।
पति की मौत के बाद मेनका पारंपरिक चावल की किस्मों के बारे में जागरूकता पैदा करने के साथ-साथ एक चावल की दुकान चलाकर अपने पति की विरासत को आगे बढ़ा रही हैं।
अक्सर कहा जाता है कि औरतों का मुख्य काम घर परिवार को चलाना होता है। खासतौर पर गांव की औरतों से समाज यही उम्मीद करता है कि वे बच्चे पालेंगी और घर संभालेंगी बस! लेकिन ऐसा नहीं है। वे अपने पतियों के साथ खेतों में भी काम करती हैं और उतनी ही मेहनत करती हैं जितना कोई पुरुष करता है। वैसे तो देश दुनिया में कई ऐसी औरतें हैं जिन्होंने समाज के इस स्टीरियोटाइप को तोड़ा है लेकिन हम जिनकी बात करने जा रहे हैं वो अपने आप में खास हैं। अपने-अपने परिवारों की अस्वीकृति होने के बावजूद मेनका और थीलगराजन ने अंतरजातीय विवाह कर मौजूदा सामाजिक संरचना को चुनौती दी। हालांकि इसका प्रभाव ये पड़ा कि उनके माता-पिता ने इस दंपति का कोई साथ नहीं दिया। लेकिन इसने उन्हें परेशान नहीं किया क्योंकि उनका एक सफल करियर और अच्छी नौकरियां थीं।
हालांकि बाद में काफी कुछ बदला। पहले बच्चे के जन्म के बाद थिलगराजन ने अपनी नौकरी छोड़ दी और परंपरागत चावल की किस्मों की तलाश और उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए पूरे भारत की यात्रा शुरू कर दी। उनकी पत्नी मेनका शुरू में इसके खिलाफ थी, लेकिन बाद में वह अपनी संकोच से बाहर आईं और पति को मदद करना शुरू कर दिया। लेकिन पति की मौत के बाद मेनका पारंपरिक चावल की किस्मों के बारे में जागरूकता पैदा करने के साथ-साथ एक चावल की दुकान चलाकर अपने पति की विरासत को आगे बढ़ा रही हैं।
इस बारे में बात करते हुए कि थिलगराजन ने आखिर यह ही मिसन क्यों चुना? मेनका कहती हैं कि जब हमारे बेटे का जन्म हुआ, तो उन्होंने (थिलागराजन) बच्चे को स्वस्थ भोजन देने की ठानी। और फिर उन्होंने इस पर शोध शुरू कर दिया। इस सिलसिले में वे कृषि वैज्ञानिक Nammazhvar से एक चावल मेले में मिले। ये वो समय था जब जैविक खेती में उनकी दिलचस्पी जागी। तुरंत, उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और चावल की किस्मों की तलाश में यात्रा शुरू कर दी।" कुछ शताब्दियों तक, भारत में 1,50,000 से अधिक पोषण से समृद्ध परंपरागत चावल की किस्मों थीं। उनमें से अधिकांश समय के साथ भुला दी गईं। केवल कुछ सौ के लगभग बची हैं जिनमें से अधिकांश के बारे में शायद ही सुना हो!
थिलागराजन ने अपनी यात्रा में बहुत से किसानों से मुलाकात की और उन्हें चावल की उपलब्ध परंपरागत किस्मों के बाजार के लिए प्रोत्साहित किया। इसी समय, उन्होंने चेन्नई में एक छोटी-सी दुकान भी खोली जहां वह चावल की उन किस्मों को बेच सकते थे जो उन्हें मिल जाती थीं। हालांकि मेनका को शुरू में संदेह था और गुस्सा भी थीं, लेकिन व्यक्तिगत रूप से इन चावल की किस्मों के स्वास्थ्य लाभ को जानने के बाद वह उनके समर्थन में आ गईं।
शुरुआत में आने वाली कठिनाइयों के बारे में बात करते हुए मेनका कहती हैं कि "इनमें से ज्यादातर पारंपरिक चावल की किस्मों को पकाने में बहुत समय लगता है और हां, हमारे रोज के इस्तेमाल वाले चावलों के मुकाबले यह स्वाद में बहुत भिन्न होते हैं। इसलिए, हमारे सामने चुनौती यह थी कि हम लोगों को ये सुनिश्चित करा सकें कि ये चावल शानदार स्वाद होने के साथ-साथ पकाने के लिए भी कम समय लेते हैं, जबकि अपने पोषण संबंधी मूल्यों को बनाए रखते हैं।"
हालांकि जब दंपती को ये पता चल गया कि इसे कैसे करना है तो उनकी दुकान सफलता पूर्वक चलने लगी। कुछ समय बाद, मेनका ने भी अपनी नौकरी छोड़ दी और दुकान चलाने में अपने पति के साथ जुड़ गईं। पिछले साल, एक दुर्घटना में थिलगराजन का निधन हो गया। हालांकि इस त्रासदी से भी मेनका ने हिम्मत नहीं हारी और अपने पति की विरासत को आगे बढ़ाने का लक्ष्य तय किया। वह अब जैविक दुकानों के माध्यम से चावल की 100 से अधिक किस्मों को बेचती हैं। हाल ही में, पारंपरिक चावल की किस्मों और उपभोग के प्रसार में उन्हें उनके योगदान के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार 'असिस्ट वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' मिला।
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