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शिक्षा की गहरी खाई को पाटने की कोशिश में 'विद्या'

शिक्षा की गहरी खाई को पाटने की कोशिश में 'विद्या'

Tuesday August 11, 2015 , 7 min Read

रश्मि मिस्रा ने 'विद्या ' नामक संस्था की शुरुआत की...

शिक्षा से वंचित रहने वालों लिए 'विद्या'...

दिल्ली, मुंबई और बैंगलोर में 'विद्या' खास तौर से सक्रिय...

लगभग दो लाख बच्चे, युवा और महिलाओं के जीवन को अपनी संवेदना के स्पर्श से राहत पहुँचाने में जुटी 'विद्या'...


“हमें अकेले शुरू करना पड़ता है। हम जानते हैं कि पूंजी की व्यवस्था करना बहुत बड़ी समस्या है। लेकिन भारत की झुग्गी बस्तियों में एक उद्यमी के रूप में काम करना सबसे दुष्कर कार्य है।”
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सन् 1985 में, एक बार जब रश्मि मिस्रा ने आईआईटी कैम्पस के बाहरी छोर पर पाँच लड़कियों को कीचड़ में खेलते हुए देखा तो वे भारतीय शिक्षा प्रणाली में व्याप्त दरारों को देखकर स्तब्ध रह गईं। भारत के सबसे जाने-माने शिक्षण संस्थान के ठीक बगल में रह रही उन लड़कियों के पास मामूली शिक्षा पाने का भी कोई अवसर नहीं था। रश्मि ने उसी समय जीवन कुछ ऐसा करने का निर्णय किया, जो उन बच्चों के में बदलाव ला सके और उनके लिए अपने घर के दरवाजे खोल दिये। दया से उपजी उस छोटी सी पहल ने खुद अपना विस्तार करते हुए अब तक दिल्ली, मुंबई और बैंगलोर के लगभग दो लाख बच्चों, युवाओं और महिलाओं के जीवन को अपनी संवेदना के स्पर्श से राहत पहुँचाई है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्री राम महाविद्यालय की स्नातक, नृत्य की शौकीन, दो बच्चों की माँ और एक की दादी, रश्मि मिस्रा को युवाओं और वयस्कों के एकीकृत विकास के लिए स्थापित 'विद्या' नामक एन जी ओ (गैर सरकारी संस्थान) की संस्थापक एवं अध्यक्ष के रूप में अधिक जाना जाता है। पांच बच्चों को लेकर अपने घर से इसकी शुरुआत करने वाली रश्मि ने बाद में कुछ वालंटियर्स (स्वैच्छिक स्वयंसेवकों) की मदद से स्थानीय झुग्गियों के बच्चों के लिए अनौपचारिक कक्षाएँ शुरू कीं और फिर साल 2010 में ‘विद्या’ का पहला स्कूल खोला। दिल्ली से सटे गुड़गाँव में 5 एकड़ क्षेत्र में फैले इस स्कूल में 1000 विद्यार्थियों के लिए अध्ययन की व्यवस्था है और वह न्यूनतम खर्च पर गरीब और वंचित परिवारों के बच्चों को समग्र शिक्षा उपलब्ध करा रहा है।

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परिवर्तन में ‘विद्या’ की सक्रिय भागीदारी

28 सालों के अपने अस्तित्व में ‘विद्या’ विभिन्न कार्यक्रमों के ज़रिए अल्पसुविधा प्राप्त बच्चों को शिक्षित एवं समर्थ बनाने की दिशा में परिश्रम (प्रयास) करता रहा है। ये कार्यक्रम मुख्य रूप से शिक्षा से संबंधित होते हैं मगर शिक्षा तक ही सीमित नहीं होते और बच्चों को अपने पैरों पर खड़ा होने तथा आगे चलकर जीवन में अपना कैरियर चुनने का अवसर प्रदान करते हैं। ‘विद्या’ अंग्रेज़ी और कम्प्यूटर्स में मूलभूत साक्षरता कार्यक्रम और दक्षता-प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाते हुए महिलाओं को स्वास्थ्य, महिला-अधिकार, पर्यावरण आदि विषयों के साथ संलग्न करने पर ज़ोर देता है और साथ ही वयस्क साक्षरता संबंधी कार्यक्रम भी चलाता है। NGP द्वारा शुरू किये गए युवा-प्रबंधन कार्यक्रमों के अंतर्गत पढ़ाई अधूरी छोड़ देने वाले युवाओं के लिए कंप्यूटर-साक्षरता, अंग्रेज़ी बोलचाल एवं जीवन कौशल (लाइफ स्किल्स) पर विशेष कक्षाओं का आयोजन भी किया जाता है। वे बाकायदा कक्षाएँ लगाकर उन बच्चों की भी सहायता करते हैं जो सीधे 8वीं, 10वीं और 12वीं की परीक्षा देना चाहते हैं।

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महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ाने में उनकी मदद करके ‘विद्या’ उन्हें समर्थ तो बनाती ही है, साथ ही ज़रूरतमंद महिलाओं को कौशल-प्रशिक्षण, सूक्ष्म वित्त और सूक्ष्म-ऋण सुविधा मुहैया करा के इस तरह प्रशिक्षित करती है ताकि वे अपनी आजीविका खुद कमा सकें। यह गैर सरकारी संस्था (NGO) सामाजिक उद्यमिता को बढ़ावा देते हुए उन्हें अपने हस्तशिल्प तैयार करने का प्रशिक्षण भी देती है और उनके द्वारा तैयार वस्तुओं की बिक्री की व्यवस्था भी करती है। वे मुंबई में एक कैंटीन भी चलाते हैं और खुदरा एवं संगठित निगमों (कार्पोरेशन्स) के कर्मचारियों के लिए भोजन की व्यवस्था भी करते हैं।

रश्मि की जीवन-कथा

जब रश्मि को एहसास हुआ कि बच्चों में पढ़ने-लिखने की भूख तो है मगर उन्हें विद्यार्जन के पर्याप्त अवसर और संसाधन उपलब्ध नहीं हो पाते तो उन्होंने आस्ट्रियन दूतावास की अपनी अच्छी-ख़ासी नौकरी छोड़ दी और विद्यादान को अपना लक्ष्य बनाते हुए ‘विद्या’ की शुरुआत की। वे झुग्गी-झोपड़ियों में गईं और वहाँ रहने वाले बच्चों को ढूँढ़-ढूँढ़कर अपनी परियोजना के साथ जोड़ा और उन्हें शिक्षित करने का काम किया। अपनी यात्रा में वे समान विचार वाले लोगों और वालंटियर्स को अपने साथ जोड़ने में सफल रहीं और आज उनकी संस्था में 350 से ज़्यादा नियमित कर्मचारी हैं और 5000 से भी अधिक वालंटियर्स हैं।

'विद्या' और समाज सेवा की इस यात्रा के विषय में नामु किणी के साथ बातचीत (‘Conversations with Namu Kini’) में उन्होंने बताया, "पूंजी इकठ्ठा करना सबसे बड़ी चुनौती था। शुरू में जब लोग इंकार करते थे तो मुझे बड़ी शर्मिंदगी होती थी। किसी से पैसे माँगना भी एक कला है। आखिर आप अपने लिए नहीं माँग रहे हैं, दूसरों के लिए माँग रहे हैं।" वे मदर टेरेसा की कहानी सुनाती हैं कि कैसे वे चेन्नई के एक रईस व्यापारी के पास गईं और एक घंटे तक उसके आने का इंतज़ार करती रहीं और जब वह आया तो उन्हें दुत्कारकर भगा (उन पर थूक) दिया। लेकिन हिम्मत हारे बगैर उन्होंने व्यापारी से कहा, 'यह मेरे लिए था, अब मेरे बच्चों के लिए भी कुछ दीजिए'। रश्मि उनसे बहुत प्रेरित हैं और जब भी 'विद्या' के लिए पूंजी जमा करने में उन्हें दिक्कत पेश आती है, इस कहानी को याद करती हैं।

विद्या की सहायता से जीवन में सफलता प्राप्त करने वालों की कहानियाँ सुनाते हुए वे बहुत गौरवान्वित महसूस करती हैं और इसका श्रेय वे अपनी टीम और वालंटियर्स को देती हैं। हर सफल व्यक्ति की कहानी सुनाते हुए उनकी आँखें चमक उठती हैं और तब आपको पता चलता है कि वे उन लोगों के साथ और 'विद्या' के काम से किस गहराई के साथ जुड़ी हुई हैं।

जब नीलम के पति का देहांत हुआ तब उस पर तीन-तीन बच्चों की परवरिश का भार आ पड़ा था। 'विद्या' की सहायता से उसने बुनियादी शिक्षा प्राप्त की, शिल्पकला सीखी और 3000 रुपए का सूक्ष्म ऋण पाकर अपना खुद का शिल्पकला-व्यवसाय शुरू किया। उसके बच्चों ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की और आज नीलम अपने छोटे से कारोबार के ज़रिए 300 लड़कियों को रोजगार मुहैया करवा रही है। उसका इरादा भविष्य में और भी बहुत सी महिलाओं को समर्थ बनाना है, जिससे वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकें।

कई साल पहले हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के किसी गाँव का एक बच्चा, जो पाँचवी कक्षा में पढ़ता था, घर से भागकर उनके पास आया और बोला, 'क्या आप मुझे इंजीनियर बना देंगीं? मैं पाँचवी पास हूँ।' रश्मि उसे याद करते हुए बताती हैं कि उसका नाम बद्रसेन नेगी (भद्रसेन नेगी) है और इंजीनियर बनकर आज वह लॉस एंजलिस में नौकरी कर रहा है। 'विद्या' की मदद से अभिभूत वह आज भी 'विद्या' के स्वप्न को दिल में संजोए हुए है और इस दिशा में सक्रिय रूप से प्रयासरत है कि किन्नौर का हर बच्चा स्कूल जा सके।

इसी तरह 'विद्या' ने वत्सला के जीवन की दिशा बदलने में सक्रिय भूमिका निभाई। एक समय वह दस-दस घरों में बरतन मांजने का काम किया करती थी लेकिन 'विद्या' के बैंगलोर केंद्र द्वारा उपलब्ध की गई अंग्रेजी शिक्षा की बदौलत आज वह एक अस्पताल में रिसेप्शनिस्ट है। एक और लड़की, ममता, जो पोलियो ग्रस्त थी और अपनी झुग्गी बस्ती में हेय दृष्टि से देखी जाती थी, 'विद्या' की मदद से पढ़ने-लिखने में कामयाब हुई और उसके अंदर इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया कि आज न सिर्फ वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन चुकी है बल्कि अपना खुद का साइबर-कैफे चला रही है। ये थोड़े से उदाहरण हैं, जो 'विद्या' की सफलता की कहानी कहते हैं और उनकी भी, जो 'विद्या' की मदद से अपने जीवन में परिवर्तन का सूत्रपात कर सके।

भारत में उद्यमिता की स्थिति के बारे में चर्चा को विराम देते हुए रश्मि कहती हैं, “हमें अकेले शुरू करना पड़ता है। हम जानते हैं कि पूंजी की व्यवस्था करना बहुत बड़ी समस्या है। लेकिन भारत की झुग्गी बस्तियों में एक उद्यमी के रूप में काम करना सबसे दुष्कर कार्य है।”