इस 'दीपक' की कहानी सदियों तक रोशन रहेगी
बात पचासवें दशक की है। देश को आज़ादी मिले कुछ ही साल बीते थे। देश तरक्की की रफ़्तार पकड़ने लगा था। देश में संविधान भी लागू हो गया था। उन दिनों महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे के कस्बापेट इलाके रहने वाला एक बालक दूसरे बच्चों से बिलकुल जुदा था। उसकी सोच बिलकुल अलग थी, शौक अलग थे, काम करने का तौर-तरीका अलग था।आमतौर पर आठ से दस साल की उम्र के बच्चे अपना ज्यादा समय या तो पढ़ने-लिखने में बिताते हैं या फिर खेलने-कूदने में। लेकिन आठ साल की उम्र का वो बच्चा पढ़ता-लिखता था, खेलता-कूदता भी था, लेकिन वो ऐसे काम भी करता था जिसे देखकर लोग हैरान होते थे। काम भी ऐसा वैसा नहीं, वो काम जो आमतौर पर बड़े करते हैं। आठ साल का ये बच्चा कभी मूंग फली बेचता तो कभी गली-गली जाकर सब्जी बेचता। वो होटल में जाकर वहां साफ़-सफाई का काम भी करता। इस लड़के के पिता पुलिस में हवालदार थे, माँ भी कमाती थीं, माता-पिता दोनों पढ़े-लिखे थे, घर-परिवार में मूलभूत चीज़ों का अभाव भी नहीं था। माँ-बाप ने लड़के से घर के बाहर जाकर काम करने के लिए कभी कहा भी नहीं था। ऐसा भी बिलकुल नहीं था कि कोई मजबूरी थी जिसकी वजह से इस बच्चे को मजदूरी करनी पड़ी थी। उस पर एक जुनून सवार था और इसी जुनून में वो मूंग फली बेचता, सब्जियां बेचता, होटल में काम करता था। ये जुनून था अपने दोस्तों की मदद करने का, दोस्तों के साथ ज्यादा समय बिताने का। इस लड़के का मकान क़स्बापेट इलाके की एक ऐसी बस्ती में था जहाँ ज्यादतर लोग गरीब थे। गरीबी का आलम ये था कि घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कई लोगों को अपने छोटे-छोटे बच्चों से बाज़ार में काम करवाना पड़ता था। जब इस आठ साल के लड़के ने देखा कि उसकी हमउम्र के लड़के, उसके दोस्त रूपये-पैसे कमाने के लिए मेहनत-मजदूरी करते हैं, बाज़ार में अलग-अलग चीज़ें बेचते हैं, तब अपने दोस्तों का साथ देने और उनकी मदद करने के मकसद से इस आठ साल के बच्चे ने भी बाज़ार में अलग-अलग चीज़ें बेचना शुरू कर दिया। अगर कोई दोस्त दूध बेचता तो ये बालक भी उसकी मदद करने के लिए उसके साथ दूध बेचने लगता। इस बच्चे ने अपने दोस्तों के साथ मूंग फली, सब्जियां, फल-फूल भी बेचे, सुपारी की पुड़ियाँ बनाने में अपने दोस्त की मदद की। घोड़ागाड़ी वाले दोस्त के घोड़े को चारा भी खिलाया।लड़का भले ही सुसंस्कृत, पढ़े-लिखे ब्राह्मण परिवार से था, लेकिन लोगों की नज़र में ‘छोटे काम’ समझे जाने वाले कई काम उसने किये। लड़के में काम करने से न कोई हिचक थी, न शरमाहट और घबराहट। वो जो भी काम करता मन लगाकार करता। उसे लगता कि वो दोस्ती का फ़र्ज़ निभा रहा है। उसके गरीब दोस्त भी उसकी दोस्ती के ज़ज्बे पर हैरान होते थे। उस बच्चे की ये खूबी थी कि वो जिस किसी से दोस्ती करता तो दोस्ती के रिश्ते को इतना मज़बूत करता कि वो बड़ी से बड़ी चुनातियों के बाद भी वो रिश्ता नहीं नहीं टूटता था। वो लड़का अपने हमउम्र के बच्चों में दोस्ती की सच्ची, पक्की और सबसे अच्छी मिसाल बन गया था। अपने अंदाज़ में दोस्ती का फ़र्ज़ निभाते हुए इस बालक ने छोटी-सी उम्र में ही रुपये कमाना भी शुरू कर दिया था। उम्र महज़ आठ साल थी लेकिन वो लड़का अपनी मेहनत से आठ रुपये महीना कमाने लगा था। उस बालक ने ज़िंदगी भर दोस्ती का पवित्र रिश्ता बखूबी निभाया।यही बालक बड़ा होकर अपने शहर का सबसे मशहूर कारोबारी बना। उसने मेहनत और ईमानदारी के बल पर एक बहुत ही विशाल और समृद्ध कारोबारी साम्राज्य खड़ा किया। कभी पुणे की गलियों और बाज़ारों में मूंग फली, सब्जियां, फल-फूल, बेचने वाले उसी बालक ने जीवन में कदम दर कदम तरक्की की और आज वो रियल एस्टेट, कंस्ट्रक्शन, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी, रोबोटिक्स, एनीमेशन, ऑटोमोबाइल्स, मनोरंजन-सिनेमा, शिक्षा, पर्यटन और खेलकूद जैसे क्षेत्रों की बड़ी-बड़ी और नामचीन कंपनियों का मालिक है। मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में जन्मे उस बालक ने बड़ा होकर पुणे शहर में मध्यमवर्गीय लोगों/परिवारों के लिए सैकड़ों फ्लैट बनवाये। गरीब बस्ती में पले-बढ़े उस शख्स ने कई शहरों में आलीशान बस्तियां बसायीं। जिस बालक के दोस्त गरीबी की मार की वजह से स्कूल नहीं जा पाते थे वही बालक जब बड़ा होकर बहुत बड़ा उद्यमी और कारोबारी बना तब उसने एक बड़ा स्कूल भी बनवाया और दूसरे शिक्षण संस्थान भी शुरू किये। बचपन से ही असाधारण काम करने वाले उस बालक ने बढ़ती उम्र के साथ भी असाधारण काम किये और असाधारण उपलब्धियां हासिल कीं। जिस बालक ने अपने दोस्तों की मदद के मकसद ने मजदूरी की, बाज़ार में अलग-अलग चीज़ें बची उसी ने आगे चलकर हजारों लोगों को रोज़गार देने की ताकत हासिल की।यहाँ जिस शख्सियत के बचपन की यहाँ हुई है उनका नाम दीपक सखाराम कुलकर्णी है, जोकि करोड़ों रुपयों की आमदनी वाले डीएसके ग्रुप के संस्थापक और मालिक हैं। दीपक सखाराम कुलकर्णी देश-भर में डीएसके के नाम से भी जाने जाते हैं और इनकी गिनती देश के बड़े और प्रभावशाली उद्यमियों और कारोबारियों में होती हैं। रियल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन की दुनिया में अपनी बेहद ख़ास पहचान बनाने वालेदीपक सखाराम कुलकर्णी ने इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी, रोबोटिक्स, एनीमेशन, ऑटोमोबाइल्स, मनोरंजन-सिनेमा, शिक्षा, पर्यटन और खेलकूद जैसे क्षेत्रों में भी कंपनियों खोलीं और खूब कारोबार किया। कारोबार लगातार बढ़ भी रहा है उनकी शख्सियत नए-नए आयाब खुदसे जोड़ते हुए लगातार बड़ी होती जा रही है।दीपक की कहानी भी उन्हीं के व्यक्तित्व की तरह असाधारण और अनूठी है। उनकी कहानी भी शून्य से शिखर तक पहुँचने की कहानी है। कहानी – संघर्ष से सफलता हासिल करने की है। मेहनत से विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल परिस्थितियों में बदलने की है। लोगों की मदद करने के जुनून में नया इतिहास लिखने की कहानी है। ये कहानी सफलता के मंत्र बताने वाली है। पीढ़ियों दर पीढ़ी लोगों को प्रेरणा देने का काम करने वाली भी है ये कहानी।
इस बेजोड़ कहानी की शुरूआत पुणे के कस्बापेट इलाके से होती है जहाँ 28 जून, 1950 को एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में दीपक का जन्म हुआ। दीपक के पिता पुलिस में कांस्टेबल थे, उनकी माँ भी नौकरीशुदा महिला थीं और एक स्कूल में काम करती थीं। माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव दीपक के मन-मश्तिष्क पर बहुत गहरे से पड़ा। चूँकि पिता पुलिस में थे घर में हमेशा अनुशासन रहा। माँ बहुत मेहनती थीं। दिन-भर काम करती थीं ताकि परिवार के किसी सदस्य को भी किसी तरह की कोई तकलीफ न हो। कड़ी मेहनत करने का पहला सबक दीपक को अपने माँ-बाप से ही मिला था। माता-पिता के आचरण, काम करने के तौर-तरीकों, लोगों से व्यवहार को देख-समझकर दीपक ने बहुत कुछ सीखा। यही वजह है कि दीपक ने अपने माता-पिता को अपना पहला और सबसे गुरू माना।
पुणे में डीएसके ग्रुप के मुख्यालय में हुई एक बेहद ख़ास और अंतरंग बातचीत में दीपक कुलकर्णी ने हमें अपने जीवन की कई सारी महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में बताया। इनमें कई घटनाएं ऐसी हैं जिनके बारे में उनके बहुत करीबी लोग भी नहीं जानते हैं। दीपक ने बताया कि उनकी माँ सुबह बहुत जल्दी उठ जाया करती थी और पूरे घर के लिये खाना बनाकर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के लिये निकल जाती थीं। शाम को घर लौटकर भी वह घर में सिलाई-कढाई का काम किया करती थी। उन दिनों दीपकका परिवार पुणे के एक ‘वाडे’ में रहा करता था। ‘वाडे’ का मतलब एक ऐसी जगह है जहाँ एक ही बिल्डिंग में 15-20 परिवार किराये पर रहते थे।
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दीपक ने बताया कि जब उनकी माँ घर का सारा काम पूरा कर लेतीं तब रात को वे ‘वाडे’ की दूसरी औरतों से मिलकर सुख-दुःख की बातें करतीं। दूसरी औरतें भी अपने-अपने घर का सारा काम निपटाकर ‘वाडे’ में एक जगह इक्कट्ठा होतीं और वहीं बैठकर आपस में बातें करतीं। अमूमन हर दिन औरतों की ये बैठक होती और अमूमन हर दिन औरतें एक दूसरे से दिन के कामकाज के अनुभव साझा करतीं। दीपक के पास रात के उस वक्त करने के लिए दूसरा काम नहीं होता था इसी वजह से वे भी बैठक की जगह चले जाते थे और अपनी माँ और दूसरी औरतों की बातें सुनते थे। इसी बातचीत से दीपक को पता चलता था कि उनकी माँ सुबह से शाम तक कितनी मेहनत करती हैं। माँ की दिनचर्या के बारे में जानकर दीपक बहुत ज़ज्बाती हो जाते थे। माँ के प्रति उनका सम्मान और प्यार बढ़ता ही जा रहा था। दीपक के बाल-मन में अपनी माँ की तरह मेहनत करने का ज़ज्बा पैदा होने लगा। बातचीत के दौरान दीपक ने ये भी बताया कि उन दिनों टीवी थी नहीं। कुछ लोगों, खासकर अमीर लोगों के पास रेडिया था। गरीब लोगों के पास मनोरंजन के कोई साधन नहीं थे। यही वजह थी कि वाडे की सारी महिलाएं एक जगह रात इक्कट्ठा हो जाती थीं और अपने जीवन के सुख-दुःख की बातें करते हुए मन हल्का कर लेती थीं। दीपक ने इन्हीं बैठकों की बातें सुनकर बचपन में ही ये जान लिया था कि घर गृहस्थी को चलाने के लिए महिलाओं को किस तरह की तकलीफों का सामना करना पड़ता है। दीपक जिस ‘वाडे’ में रहते थे वहां आसपास और आसपड़ोस के लोग काफी गरीब थे। कुछ लोग इतने गरीब थे कि उन्हें अपने बच्चों से मजदूरी और दूसरे काम करवाने पड़ते थे। बचपन में गरीबी की वजह से दीपक के कई दोस्त स्कूल नहीं जा पाते थे। कई दोस्त बाज़ार में अलग-अलग चीज़ें बेचते थे। आलम ये थे कि खेलने-कूदने, साथ में पढ़ने-लिखने के लिए दीपक के साथ उनकी हमउम्र के बच्चे, दोस्त रहते ही नहीं थे, क्योंकि सभी काम पर चले जाते थे। नन्हें दीपक ने सोचा कि घर पर खाली बैठे रहने या फिर अकेले मटरगश्ती करने के अच्छा है कि वे अपने दोस्तों की मदद करें। मदद करने के मकसद से दीपक से दोस्तों के साथ वो सब काम करने लगे जो दोस्त करते थे। अगर कोई दोस्त मूंग फली बेच रहा होता तो दीपक उसके साथ मूंग फली बेचते, कोई सब्जी बेचता तो दीपक उसका भी साथ देते। आठ साल की छोटी उम्र में ही दीपक ने कारोबार की बारीकियों को सीखना-समझना शुरू कर दिया। ग्राहकों से कैसे बोलना है, लोगों से कैसा व्यवहार करना है, बाज़ार में बेचने के लिए वस्तु का भाव कैसे तय करना है जैसी ज़रूरी बातें दीपक बचपन में ही सीख गए थे। दीपक ने बाज़ार में कदम रखने के कुछ ही दिनों में अपने दम पर भी चीज़ों को बेचना सीख लिया था। दीपक के काम और कारोबार के तौर-तरीके से प्रभावित उनके दोस्तों के पिता उन्हें अब पारितोषिक/ईनाम भी देने लगे थे। इसी तरह ईनाम जुटते-जुटाते दीपक ने आठ साल की उम्र में ही कमाना शुरू कर दिया था। बड़ी बात तो ये है कि दीपक को काम करने, बाज़ार जाकर चीज़ें बेचने, मजदूरी करने के लिए किसी ने नहीं कहा था। उन्होंने स्वयं ही ये फैसला लिया था। न किसी ने जोर डाला था और ना ही किसी ने ज़बरदस्ती ही थी। और तो और, घर-परिवार की हालत भी ठीक थी और उस आठ साल से बच्चे से बाज़ार में मेहनत और चीज़ों की बिक्री कराने जैसी कोई मजबूरी भी नहीं थी।
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दुनिया-भर में बहुत ही कम ऐसे वाकये मिलते हैं जहाँ बिना किसी मजबूरी, जोर-ज़बरदस्ती के आठ साल के किसी बालक ने स्वयं ही बाज़ार में जाकर कारोबार करना शुरू कर दिया हो। आमतौर पर इस उम्र के बच्चे खेल और खिलौनों की तरफ आकर्षित होते हैं या फिर माता-पिता के कहने पर किताबों को अपना साथी बना लेते हैं, लेकिन दीपक आम बच्चों जैसे बिलकुल नहीं थे। पिता के अनुशासन और माँ की मेहनत का उनपर बहुत गहरा प्रभाव था। हमउम्र के बच्चों से उनकी दोस्ती पक्की और सच्ची थी। आठ साल की उम्र के बच्चों में दूसरे लोगों की मदद करना का ज़ज्बा और जुनून भी देखने को कम ही मिलता है। इस बात में दो राय नहीं कि बचपन से ही दीपक की सोच, उनका नजरिया, उनके ज़ज्बात दूसरे बच्चों से अलग थे। उनके विचार बचपन से ही परिपक्व थे। शायद यही वजह थी कि उन्होंने अपने एक प्रिय सखा गणेश का साथ देने के लिए उनके साथ होटल में बर्तन साफ़ किया। दीपक के एक मित्र बबन तांगा चलाते थे, दीपक ने घोड़े को चना खिलाने और उसे नहलाने का भी काम किया।
शुरूआती दिनों में दीपक को इन्हीं कामों की वजह से पांच रुपये महीना मिलने लगे थे। उन दिनों पांच रुपये यानी बड़ी कीमत होती थी। कमाए हुए रुपयों से दीपक ने अपने घर-परिवार की मदद करना शुरू किया। दीपक की ज़िंदगी में बचपन की एक दिवाली ऐसी है जिसे वे आज भी याद कर बहुत खुश होते हैं। वो दिवाली का दिन दीपक के सबसे खुशनुमा और यादगार दिनों में से एक है। उस दिवाली की यादें ताज़ा करते हुए दीपक बहुत भावुक भी हो गए। हुआ यूँ था कि दीपक ने अपनी कमाई से 22 रुपये जमा कर किये थे। दिवाली वाले दिन दीपक ने ये 22 रुपये अपने पिता को देते हुए उनके अपने तीनों भाइयों के लिए नए कपड़े सिलवाने और मिठाइयाँ खरीदने को कहा था। बेटे की कमाई के 22 रुपये लेते हुए भावुक हो गए थे। दीपक ने बताया कि उनके पिता की तनख्वाह करीब 40 रुपये महीना था और वे दिवाली पर अपने बच्चों के लिए पांच रुपये के फटाके खरीदते थे। बच्चों को फटाकों से ही संतुष्ट और खुश होना पड़ता था, लेकिन उस दिवाली जब उनकी कमाई से परिवार के हर सदस्य नो नए कपड़े मिले और घर पर मिठाईयां आयीं तो सभी बहुत खुश हुए। वो दिवाली परिवार के सभी सदस्यों के लिए सबसे बड़ा त्यौहार बन गयी। दीपक ने कहा, “जब मैंने अपने पिता को 22 रुपये दिए तो उनकी आँखों में चमक आ गयी, वो बहुत खुश हुए। उन 22 रुपयों की कीमत सिर्फ रुपयों के हिसाब ने नहीं गिनी जा सकती, उन 22 रुपयों ने जो खुशी दी वो लाखों रुपयों में भी नहीं मिल सकती हैं। भावनाओं को पैसे से तौलना नामुमकिन है।”
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बचपन की बातें साझा करने से दीपक बिलकुल नहीं हिचकिचाते हैं। जब वे बचपन के किस्से सुनाते हैं तब उनके चहरे पर खुशी साफ़ दिखाई देती है। वे भावुक नज़र आते हैं। बार-बार वे जोर देते हुए कहते हैं, “मैं भाग्यशाली हूँ, मुझे इतना अच्छा बचपन मिला, छोटी उम्र से ही काम करने का मौका मिला।” बचपन के किस्से सुनाने की कड़ी में दीपक ने एक संदर्भ में ये भी कहा, “हमारा तो बहुत ही प्यारा बचपन था। काम करने से कोई बीमार नहीं गिरता, डाक्टर के पास नहीं जाता। काम करना एक गुड हैबिट है ... अगर मेरे सब दोस्त काम कर रहे हैं तो मैं घर में बैठकर क्या करता ... मेरे दोस्तों के साथ मैं भी काम करना सीख गया। वो मेरे लिए ज़िंदगी में एजुकेशन की बहुत बड़ी फाउंडेशन है। मुझे अच्छे संस्कार मिले। कष्ट उठाने के संस्कार मिले, मेहनत करने की आदत मुझे पड़ी। इसी लिए मैं अपने आप को बहुत भाग्यवान मानता हूँ, मेरी कोई मजबूरी नहीं थी।” एक सवाल के जवाब में, “मैं अपने बचपन के दोस्तों को गरीब नहीं मानता हूँ। मैं कहता हूँ वो सब अमीर थे, गरीबी पैसों ने नहीं गिनी जाती, गरीबी दिल के गिनी जाती है। जो माँ-बाप अपने बच्चों को एजुकेशन भी देते थे, सब्जी भी बेचने देते थे और जो बच्चे स्कूल में जाकर पढ़ते थे, एग्जाम में पास होते थे और खुद की कमाई से माँ-बाप को हेल्प भी करते थे, ऐसे में गरीबी कहाँ है, ये दो दिल की अमीरी है।” अपने बचपन के दिनों को मीठी यादों के रूप में सहेजने वाले दीपक का कहना है कि वे इस वजह से भी भाग्यशाली है क्योंकि उन्हें भी छोटी उम्र से ही अपने परिवार की आर्थिक रूप से मदद करने का अवसर मिला। बचपन में किये इस काम में उन्हें कई खट्टे-मीठे अनुभव मिले। इन अनुभुवों के आधार पर ही बाहरी दुनिया और व्यापार को देखने की समझ विकसित हुई।
आज दीपक बेहद ऊँचे मुकाम पर हैं, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि बचपन में किये ये ‘छोटे-छोटे’ काम ही उनकी सफलता की पहली सीढ़ी थी। दीपक महज औपचारिक शिक्षा को वे काफी नहीं मानते। उनका मानना है कि बचपन केवल खिलौनों से खेलने का नाम नहीं है। बचपन में ही अलग-अलग काम करने से आगे चलकर बहुत फायदा होता है। बातों-बातों में दीपक मौजूदा शिक्षा प्रणाली की आलोचना करने से भी नहीं चूके। उन्होंने कहा कि उनके ज़माने में जब बच्चा छह साल का हो जाता था तभी उसे स्कूल भेजा जाता था। छह साल तक बच्चे घर पर ही अपने माँ-बाप से संस्कार और काम सीखते थे। स्कूल में टीचर बच्चों को अपने बच्चों जैसा समझकर व्यवहार करते थे। स्कूल में शरारत करने या फिर ठीक से पढ़ाई न करने पर टीचर बच्चों की पिटाई भी करते थे। लेकिन आजकल हालात बिलकुल बदल गए हैं। माँ-बाप बच्चों को डेढ़, दो साल की उम्र में ही प्ले स्कूल भेज रहे हैं। बच्चे भी ऐसे हैं कि वे किताबें पढ़ते हैं, या फिर टीवी देखते हैं या वीडियो गेम खेलते हैं। अगर बच्चे घर और स्कूल के काम तक ही सीमित रहेंगे तो वे आगे तो बढ़ेंगे लेकिन उनका बौद्धिक विकास नहीं होगा। बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए ये ज़रूरी है कि उनका परिचय बाहरी दुनिया से भी कराया जाय और उनके स्कूल और घर के अलावा दूसरी जगह के कामकाज भी सिखाये जाएँ । दीपक ने उनके बचपन में मशहूर एक कहावत भी सुनाई और स्कूल में भी बच्चों को सिर्फ किताबी ज्ञान दिए जाने पर दुःख जताया। उन्होंने कहा, “मेरे बचपन में कहा जाता था –छड़ी लगे छम-छम, विद्या आये घम-घम। हमारे दिनों में स्कूल अच्छे थे, टीचर अच्छे थे। होम वर्क का भी टेंशन नहीं था। टीचर मारते भी थे लेकिन संस्कार देते थे, लेकिन आजकल तो स्कूल में सिर्फ किताबों में लिखी बातें ही पढ़ाई जाती हैं।”
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बचपन में दीपक पर सबसे ज्यादा प्रभाव उनकी माँ का था। माँ से दीपक ने बहुत कुछ सीखा। अपमान की घूँट पीना और किसी के अपमान करने पर भी उसे सकारात्मक ढंग से लेकर आगे बढ़ने का गुण भी दीपक ने अपनी माँ से बचपन में ही सीखा था। माँ के साथ हुई एक घटना थी जिसने दीपक को भी अपमान के समय धैर्य, साहस और संयम से काम लेना सिखा दिया था। हुआ यूँ था कि घर-परिवार को चलाने में आ रही दिक्कतों को दूर करने के मकसद से दीपक की माँ ने एक स्कूल में ‘आया’ के रूप में काम करना शुरू किया था। उस वक्त दीपक का एक छोटा भाई सात-आठ महीना का था यानी माँ की गोद में रहकर दूध पीता बच्चा था। वो नन्हा बच्चा माँ के बिना रह नहीं सकता था। लिहाजा, माँ उसे भी अपने साथ स्कूल ले जाती थी। इसी बात को लेकर स्कूल की मालकिन माँ पर काफी नाराज होती थीं। इससे माँ को बेहद कष्ट होता था। एक दिन स्कूल की मालकिन ने बच्चे को लेकर दीपक की माँ को भला-बुरा कह दिया। दीपक की माँ ने अपमान की घूँट पिए और चुप रहीं। लेकिन, इसी अपमान ने उन्हें एक बड़ा फैसला लेने पर मजबूर किया। माँ ने अपमान के बाद धैर्य और साहस का परिचय दिया और अपना स्कूल खोलने का निश्चय कर लिया। सही समय देखकर दीपक की माँ ने अपना स्कूल खोल लिया। इस घटना का भी दीपक ने मन-मश्तिष्क पर गहरा असर पड़ा। दीपक ने बताया, “मेरी माँ सिर्फ दूसरी क्लास तक पढ़ी हुईं थीं, लेकिन माँ ने चौथी क्लास तक की स्कूल खोल ली थी।”
ऐसी ही एक घटना जब दीपक के साथ हुई तब उन्होंने अपनी माँ की तरह ही काम किया और साबित किया कि माँ जैसा दृढ़ संकल्प, संयम और साहस उनमें भी है और ये उन्हें विरासत में मिला है। ये घटना उस समय की है जब दीपक सांतवीं कक्षा में थे। उन दिनों वे घर-घर जाकर अखबार बांटने की नौकरी भी करते थे। अखबार बांटने के लिए उन्हें हर दिन सुबह पाँच बजे उठना होता। सुबह पांच बजे उठकर वे अखबार बाँटने निकल जाते थे। एक दिन वे लेट हो गए और उसी दिन अखबार बांटने वाली एजेंसी के मालिक ने दीपक को नौकरी से निकाल दिया। दीपक ने उसी दिन ये संकल्प ले लिए कि अब किसी के पास भी नौकरी नहीं करेंगे और खुद से अपना काम करेंगे या कारोबार करेंगे। इस संकल्प के बाद दीपक ने खुद से अखबार बांटने का काम शुरू कर दिया। एक मायने में अपमान की इस घटना ने दीपक को नौकरीपेशा से उद्यमी बना दिया। और यहीं से उनके कारोबारी सफर की असली शरूआत हुई। इसके बाद उन्होंने कभी लॉटरी के टिकट बेचे, तो कभी दिवाले पर निकाले जाने वाले विशेषांक, उन्होंने पटाखे भी बेचे। दीपक ने सड़क पर खड़े होकर पुरानी किताबें भी बेचीं। अप्रैल-मई में जब परीक्षाएं ख़त्म हो जाती थीं तब वे विद्यार्थियों से उनके पिछले साल की किताबें ले लेते थे और फिर उन्हें सडकों पर बेचकर रुपये कमाते थे। दीपक कहते हैं, “उन दिनों मैंने वो काम किया जिसमें पूंजी कम लगती थी। मैंने वो काम किये जिसमें मेहनत थी।” दीपक ने अपने बचपन और विद्यार्थी जीवन में जो भी काम किया उसे पूरी शिद्दत के साथ किया, मन लगाकर किया और मेहनत की। मेहनत और निष्ठा का ही नतीजा था कि उन्होंने जो भी काम किये सबमें उन्हें कामयाबी ही मिली।
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दीपक के कारोबारी जीवन में एक बड़ा मोड़ उस समय आया जब वे पुणे केएमई एस कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स में बीकॉम की पढ़ाई कर रहे थे। बीकॉम की पढ़ाई के आखिरी साल में एक ऐसी घटना हुई जिसने दीपक के कारोबारी जीवन को एक नया आयाम और मुकाम दिया। घटना ने दीपक को छोटे-मोटे कामों का कारोबारी से सफल उद्यमी बना दिया। दीपक ने उस घटना की जानकारी देते हुए बताया कि जब वे फाइनल ईयर में थे तब उन्हें दो महीने की ट्रेनिंग के लिए मशहूर कंपनी किर्लोस्कर के दफ्तर में जाने का मौका मिला था। दीपक ने किर्लोस्कर के दफ्तर में टीम कर्मचारियों को एक कमरे में टेलीफोन ऑपरेट करते हुए देखा। सिर पर हैडफोन और मुँह के सामने माइक्रोफोन लगाये ऑपरेटर उन्हें काफी अच्छे लगे। उन्हें टेलीफोन ऑपरेटर्स का काम दिलचस्प लगा और उनके मन में ऑपरेटर का काम सीखने की इच्छा जगी। तब दीपक ने किर्लोस्कर के एक अधिकारी सोनपाटकी के सामने अपनी इच्छा का इज़हार किया। सोनपाटकी ने दीपक को काम सिखाने का भरोसा दिलाया और उन्हें शाम में चार बजे आकर मिलने को कहा। उसी दिन ठीक चार बजे दीपक सोनपाटकी के पास पहुँच गये। सोनपाटकी दीपक को टेलीफोन ऑपरेटर्स के रूम में ले गए और हैंडसेट उन्हें थमा दिया। लेकिन जैसे ही माईक्रोफोन दीपक के मुँह के पास आया, उन्हें डेटॉल की तीव्र गंध आई। उन्होंने तुरंत माईक्रोफोन को अपने मूंह के सामने से हटा दिया। दरअसल एक ही माईक्रोफोन को इस्तेमाल कई लोग करते थे। ऐसे में किसी तरह का इंफेक्शन न हो इसके लिये माईक्रोफोन पर डेटॉल लगा हुआ भीगा कॉटन लगाया जाता था। लेकिन माइक्रोफोन इस्तेमाल करने वाले सभी कर्मचारियों को डेटॉल की दुर्गंध सहनी पड़ती थी। तभी दीपक के मन में ख्याल आया। ख्याल ऐसा था जिसने दीपक को अन्वेषक और उद्यमी बना दिया। दीपक को लगा कि अगर माईक्रोफोन में से दुर्गंध के बजाय खुशबु आये तो इतना अच्छा होगा। इसके बाद दीपक ने उस दुर्गंध को सुगंध में बदलने की कोशिश शुरू कर दी। अपनी कोशिश में दीपक ने अपनी प्रेमिका की मदद लेनी शुरू की। दीपक और उनकी प्रेमिका ने विचार-मंथन और प्रयोग शुरू किया और इसी प्रयोग से टेलीफोन क्लिनिंग के आईडिया का जन्म हुआ। दीपक ने माइक्रोफोन में डेटॉल के बदले में इत्र से घुले कॉटन को लगाना शुरू किया, इससे दो फायदे हुए – एक तो दुर्गंध चली गयी और उसकी जगह सुगंध ने ली, साथ ही कई लोगों के इस्तेमाल के बाद भी किसी बीमारी के फैलने का खतरा भी ख़त्म हो गया। इसके बाद दीपक ने टेलीफोन में भी इत्र लगाने का काम शुरू कर दिया। काम चल पड़ा तो दीपक ने अपनी पहली कंपनी – टेली स्मेल खोल ली। कुछ ही दिनों में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ दीपक की कंपनी की क्लाइंट लिस्ट में शामिल हो गयीं। दीपक स्वतंत्र कारोबारी बन गए। और, इस दौरान एक और घटना हुई जिसने दीपक को नए सपने देखने पर मजबूर कर दिया। घटना छोटी थी, लेकिन दीपक की ज़िंदगी में उसका असर बहुत बड़ा है।
घटना किर्लोस्कर के दफ्तर की है। टेलीफोन क्लीनिंग के सिलसिले में दीपक को किर्लोस्कर के दफ्तर में जाना-जाना पड़ता था। एक दिन दीपक ने कंपनी के चेयरमैन के केबिन के बाहर एक तख्ती देखी। तख्ती पर लिखा था एस. एल. किर्लोस्कर, चेयरमैन एंड मैनेजिंग डायरेक्टर। तख्ती को देखकर दीपक के मन में इच्छा जागी की काश उनकी भी एक कंपनी हो और जिसमें मैनेजिंग डायरेक्टर और चेयरमैन के रूप में उनका नाम लिखा जाये। दीपक का ये सपना भी साकार हुआ। बात वर्ष 1991 की है। उस वक्त कंस्ट्रक्शन के कारोबार में काले धन का काफी बोलबाला था। कोई भी बिल्डर पब्लिक लिमिटेड कंपनी बनाने को तैयार नहीं था। ऐसे माहौल में दीपक ने ये साहस कर दिखाया और डीएस कुलकर्णी एंड कंपनी को डीएस कुलकर्णी डेवलपर कंपनी लिमिटेड बना दिया और उसे स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेट कंपनियों में शुमार करवाया।
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दीपक कंस्ट्रकशन की दुनिया में कैसे आये इसके पीछे की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। टेलीफोन क्लीनिंग के बिजनेस के बाद दीपक ने स्टेशनेरी का कारोबार भी शुरू किया। अब दीपक को एक दफ्तर की ज़रुरत महसूस हुई। उन्होंने एक ऐसी जगह की तलाश शुरू की जहाँ वे अपना दफ्तर खोल सकें। उन्हें पुणे में अपने दफ्तर के लिए जगह तो मिली लेकिन मालिक ने पहले उसे कमरे की पेंटिंग करवाने की बात कही। दीपक समय नहीं गवाना चाहते थे, इस वजह से उन्होंने लैंडलॉर्ड से कहा कि वे खूब पेंटिंग करवा देंगे। दीपक हार्डवेयर के बाज़ार गए, वहां से पेंट और पोलिश खरीदी और पेंटर को किराये पर लेकर आ गए। पेंटिंग करवाते समय दीपक के कारोबारी दिमाग ने कई तरह के हिसाब लगाने शुरू किये। इसी दौरान उन्हें अहसास हुआ कि उन्होंने पेंटिंग का सारा काम 68 रुपये में करवा लिया है और अगर वे किसी कांट्रेक्टर को पेंटिंग का काम देते तो 100 रुपये का खर्च आता। इस अहसास के बाद दिमाग में एक नयी बत्ती जली और दीपक को पता चल गया कि पेंटिंग का काम करवाने पर सीधे 50 फीसदी का फायदा होता है। इसके बाद दीपक ने तुरंत अपने नयी कंपनी – पेंटाल शुरू कर दी और पेंटिंग करवाने के ठेके लेने लगे। ‘पेंटाल’ की शुरूआत 1973 में हुई थी। इसी दौरान पुणे के ही एक मकान में उन्हें पेंटिंग का काम मिला। जब दीपक वहां काम करने पहुंचे तो उन्हें पता चला कि जब तक फर्नीचर का काम पूरा नहीं हो जाता तब तक पेंटिंग का काम चालू नहीं किया जा सकता है। लेकिन, दीपक के पेंटर किराये पर ले लिए थे, पेंटिंग का सारा सामान खरीद लिया था। ऐसे में उन्होंने पेंटिंग के घाटे से बचने के लिए फर्नीचर का काम भी शुरू कर दिया। इस बीच एक बार वे किर्लोस्कर के दफ्तर में पेंटिंग का काम करने पहुंचे, लेकिन वहां छत से पानी का रिसाव हो रहा था, जिससे पेंटिंग में देरी हो रही थी। इस बार भी पेंटिंग का घाटा न हो इस वजह से दीपक ने छत की मरम्मत के काम की ज़िम्मेदारी भी अपने कंधों पर ले ली। इसके बाद भी इसी तरह की घटनाओं का सिलसिला जारी रहा और इन्हीं घटनाओं की वजह से दीपक वे सभी कामों का ठेका लेने लगे थे जोकि किसी भी मकान या भवन के रखरखाव में ज़रूरी होते हैं। एक दिन दीपक ने ये महसूस हुआ कि मकानों और भवनों के निर्माण से जुड़े सारे काम वे कर रहे हैं। इस अहसास के बाद दीपक ने अपने कारोबारी जीवन का सबसे बड़ा फैसला लिया। फैसला था बिल्डर बनने का, रियल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन की दुनिया में कदम रखने का। और इस तरह 1980 में दीपक बिल्डर बन गए। दीपक ने उन दिनों की यादें ताज़ा करते हुए कहा, “ मुझे अचानक अहसास हुआ था कि मैं घर का कोना-कोना रिपेयर कर रहूँ, ऐसे में मैं पूरा घर ही क्यों न बना डालूं, इसकी ख्याल ने मुझे बिल्डर बना दिया।”
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दीपक ने मकान बनाने शुरू किये तो फिर रुकने का नाम ही नहीं लिया। एक के बाद एक अपार्टमेंट, हाउसिंग कॉलोनी, विल्ला समूह, दफ्तर, व्यावसायिक भवन आदि बनाते ही चले गए। कुछ ही सालों में उनकी गिनती महाराष्ट्र के चोटी के बिल्डर्स में में होने लगी। किसी बड़ी कंपनी का चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर होने का उनका सपना भी पूरा हो गया। बड़ी बात ये भी है कि दीपककुलकर्णी सिर्फ अपनी बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी डीएसके डिवेलपर्स के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर ही नहीं हैं बल्कि डीएसके ग्रुप के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। डीएसके ग्रुप महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देश के बड़े उद्योग समूहों में एक है। डीएसके ग्रुप में रियल एस्टेट, कंस्ट्रक्शन, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी, रोबोटिक्स, एनीमेशन, ऑटोमोबाइल्स, मनोरंजन-सिनेमा, शिक्षा, पर्यटन और खेलकूद जैसे क्षेत्रों की बड़ी-बड़ी और नामचीन कंपनियों शामिल हैं। और इन कंपनियों के नाम - डीएसके डिवेलपर्स लिमिटेड, डीएसके एंटरटेनमेंट, डीएसके पॉवर, डीएसके लिवरपूल, डीएसके ट्रेवल, डीएसके डिजिटल टेक्नोलॉजीज, डीएसके ग्रीन आइस गेम्स, डीएसके टोयोटा, डीएसके योसंग, डीएसके बेनेली भी शामिल हैं।
दीपक कुलकर्णी ने शिक्षा के क्षेत्र में भी खूब काम किया है। उन्होंने पुणे में इंटरनेशनल स्कूल भी खोला है। वे दूसरे शिक्षा संस्थान भी चला रहे हैं। खेल-कूद की दुनिया में भी दीपकने कामयाबी के परचम लहराए हैं। वे डीएसके शिवाजियंस फूटबाल क्लब के मालिक भी हैं। रोचक बात ये भी है कि बचपन में तरह-तरह के छुट-पुट कारोबार और काम करने वाले दीपक इन दिनों करोड़ों का कारोबार करने वाली अलग-अलग क्षेत्रों की अलग-अलग कंपनियों का सफलतापूर्वक संचालन कर रहे हैं। अंतरंग बातचीत के दौरान दीपक ने अपनी नायाब कामयाबी के राज़ भी हमसे साझा किये। दीपक के अनुसार, उनका मूल मंत्र है ग्राहक की जेब में नहीं बल्कि दिल में झांकें। ग्राहकों को भगवान का दर्जा देने वाले दीपक के लिये उनका संतोष ही सर्वोपरि है। आज भी वे कभी-कभी 30-35 साल पहले अपनी ही बनाई किसी बिल्डिंग के किसी फ्लैट में पहुँचकर मकान मालिक से एक कप चाय पिलाने की गुजारिश करते हैं। फ्लैट के मालिक को जब पता चलता है कि सामने खड़ा व्यक्ति उनके फ्लैट का निर्माण करने वाला मशहूर बिल्डर डीएस कुलकर्णी है तो वह गदगद् हो जाता है। दीपक कहते हैं, मैं जब अपने ग्राहक की आँखों में संतोष देखता हूँ तब मुझे संतोष मिलता है और मैं इस संतोष को शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता।”
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कुलकर्णी की मानें तो उनके लिए अपने बनाये किसी अपार्टमेंट, फ्लैट या मकान में जाना अपनी शादीशुदा बेटी के घर जाने जैसा है। जहाँ बेटी का सुख देखकर पिता के खुशी की सीमा नहीं होती। दीपक कहते हैं, “ग्राहक मेरे लिये दामाद की तरह हैं और मुझे संतोष है कि मेरे 40,000 से ज्यादा दामाद हैं और ये सभी मुझसे पूरी तरह संतुष्ट हैं।” महत्वपूर्ण बात ये भी है कि करोड़ों रुपयों का कारोबारी साम्राज्य खड़ा कर लेने के बाद भी दीपक खुद को पैसों के कारण अमीर नहीं मानते। वे कहते हैं, “मैं अमीरी को रुपयों में नहीं तोलता। मेरी खुशी लोगों की खुशी में है, मेरी खुशी मेरे ग्राहकों में है।”
दीपक बताते हैं कि उन्होंने हमेशा पैसों से ज्यादा आत्मिक संतोष को महत्व दिया है। एक बार एक हिलटॉप लोकेशन पर निर्माण के दौरान उनके सभी साथी उन्हें महंगे बंगले बनाने की सलाह दे रहे थे, लेकिन दीपक ने इस पॉश लोकेशन पर मध्यमवर्गीय लोगों के लिये मकान बनाने का फैसला किया। बंगले/विल्ला बनवाकर जो काम दीपक दो साल में खत्म कर सकते थे, फ्लैट्स बनाने के कारण उन्हें काम को पूरा करने के लिए चार गुना ज्यादा समय लगा। लेकिन आज इस पॉश लोकेशन पर रहने वाले मध्यमवर्गीय लोगों के चेहरे पर संतोष का जो भाव उन्हें दिखाई देता है वही दीपक के लिये ज्यादा अहमियत रखता है। दीपक चाहते थे कि पोश लोकेशन, हिल टॉप पर रहने का मध्यमवर्गीय परिवारों का सपना भी पूरा होना चाहिए। इसी वजह से उन्होंने मुनाफे पर ध्यान न देते हुए बहुत ही महंगी और रमणीय ज़मीन पर मध्यमवर्गीय लोगों के लिए फ्लैट बनवाये। अगर वे आलिशान बंगले बनवाकर बेचते तो उन्हें कई गुना ज्यादा मुनाफा होता।
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बहुत बड़े कारोबारी होने के बाद भी दीपक के कारोबार के मूल में केवल रूपया या मुनाफा नहीं है। शायद इसीलिये उन्होंने 250 करोड़ रुपये की लागत से एनिमेशन और गेम डिजाइनिंग के लिये एक कॉलेज शुरू किया है। दीपक जानते हैं कि इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेजों की तरह इस कॉलेज में निवेश किया गया पैसा उन्हें वापस नहीं मिलेगा। लेकिन उन्हें इस बात की खुशी है कि कॉलेज से हर साल 150 प्रतिभावान विद्यार्थियों की बाज़ार में कीमत करोडों की है। दीपक अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भी बखूबी समझते हैं। इसीलिये वे चाहते हैं कि समाज ने उन्हें जो कुछ भी दिया उसे समाज को वापस देना उनका फ़र्ज़ है। इसी मकसद से वे ज्यादा से ज़्यादा रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाने की कोशिशों में हमेशा जुटे रहे हैं।
कड़ी मेहनत और ईमानदारी में विश्वास करने वाले दीपक की एक ख़ास बात ये भी है कि वे किस्मत पर ज्यादा भरोसा नहीं करते। उनका मानना है कि जीवन की सफलता में किस्मत की भूमिका उतनी ही होती है जितनी आटे में नमक की। उनके मुताबिक, कोशिश को ईमानदारी, मेहनत और दृढसंकल्प के साथ अंजाम दिया जाए तो सकारात्मक दृष्टिकोष पैदा होता है और फिर सफलता को कोई नहीं रोक सकता।दीपक 65 साल की उम्र पार कर चुके हैं, लेकिन काम करने की उनकी ताकत अब भी कम नहीं हुई है। वे बड़े फक्र के साथ कहते हैं, “मैं आज भी 15 से 16 घंटे काम करता हूँ और मुझे अपने काम में आज भी उतना ही मज़ा आता है जितना बचपन में आता था।” एक बात है जो दीपक बार-बार कहते हैं और कहते हुए ज़ज्बाती नज़र आते है। वे कहते हैं, “मैंने पैसों के लिए ज़िंदगी में कभी काम नहीं किया। समाज के लिए कुछ अच्छा करने के मकसद से ही मैंने हमेशा काम किया है और आखिरी सांस तक करता ही रहूँगा। दूसरों की मदद का कोई भी मौका मैं गंवाना नहीं चाहता।” मई, 2016 में दीपक पुणे एक्सप्रेसवे पर एक सड़क-दुर्घटना का शिकार हुए। इस दुर्घटना में उनके कार के ड्राईवर की मौत हो गयी। दुर्घटना में दीपक ज़ख़्मी हुए और बाल-बाल बच गए। कारोबार को बढ़ाने में दीपक को उनकी पत्नी हेमंती और बेटे शिरीष का बखूबी साथ मिल रहा है।
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ज़िंदगी में दीपक ने बहुत कुछ हासिल किया है। खूब धन-दौलत उनके काम है, उनकी लोकप्रियता और प्रसिद्धि अपार है। समाज-सेवी के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। लेकिन, उनका एक बड़ा सपना अभी पूरा होना बाकी है। दीपक का सपना है कि वे बिल्डरों की काशी माने जाने वाले मैनहटन शहर में 150 मंजिला इमारत बनाएं । वे कहते हैं, “ हर पॉलिटिशियन का सपना होता है कि वो सीएम बने या फिर पीएम बने। हर लॉयर का सपना होता है कि वो सुप्रीम कोर्ट का जज बने। हर टीचर चाहता है कि वो स्कूल का प्रिंसिपल बने। मैंने कंस्ट्रक्शन में ही ज्यादा काम किया है इसी लिया चाहता हूँ कि मैनहटन, जो बिल्डरों की काशी मानी जाती है, वहां 150 मंजिल की बिल्डिंग बनाऊं।” बातों-बातों में दीपक ने अपनी एक और ख्वाइश के बारे में भी बताया। उन्होंने कहा, “मैं पुणे में नागराज रामचंद पेढ़ी की तर्ज़ पर ‘दीपक सखाराम कुलकर्णी पेढ़ी आणि सोने-चांदी च व्यापारी की दूकान' खोलना चाहता हूँ। मैं पुणे स्टाइल में कुर्ता धोती और टोपी पहनूंगा और पुणे स्टाइल में ही काम करूँगा। मेरी दूकान सुबह साड़े नौ बजे खुलेगी और ठीक साड़े चार बजे बंद हो जाएगी और अगर मोदीजी भी 12 बजकर एकतीस मिनट पर आयें तब उन्हें भी फिर चार घंटे तक दूकान के खुलने का इंतज़ार करना पड़ेगा।" दीपक की बातों से साफ़ था कि पुणे उनके रग-रग में बसा हुआ है और वे पक्के और सच्चे पुणेकर हैं।
दीपक से जुड़ी एक और बड़ी दिलचस्प बात है। वे अपनी पहली प्रेमिका को अब भी नहीं भूल पाए हैं, बल्कि वे प्रेमिका की याद में ही जीते हैं। उनकी अपनी प्रेमिका से मुलाकात कॉलेज के दिनों में हुई थी, दोनों एस दूसरे के प्रति आकर्षित हुए। प्यार कुछ इस तरह परवान चढ़ा कि दोनों एक दूसरे के लिए जान देने तो तैयार थे। लेकिन, दोनों के परिवारों को उनका ये प्यार पसंद था, दोनों के परिवारवाले शादी के भी खिलाफ थे। लेकिन, दीपक और उनकी प्रेमिका ने परिवारवालों की मर्जी के खिलाफ शादी की। लेकिन, शादी के कुछ सालों बाद उनकी मौत हो गयी। लेकिन, प्रेमिका का प्यार दीपककी यादों में हमेशा जिंदा रहेगा।
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